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16 Feb 2022 · 1 min read

कृतघ्न मानव

प्रकृति की शीतलता,
थी चारों ओर बिछी हुई,
पेड़- पौधे मुस्कुरा रहे,
कलियाँ आलस्पन से निकल चुकी ।

पुष्प- फल किलकारियाँ भर रहे थे,
तब मानव का जन्म हुआ,
इसी प्रकृति की छाया में,
मानव बढ़-चढ़कर बड़ा हुआ ।

पेड़-पौधों के फल- पुष्प खाकर,
अपना जीवन यापन कर रहा,
प्रतिदिन उस पेड़ के संग,
जीवन के पल था बिता रहा ।

शुक्रियादा करते न थकता,
पेड़ ईश्वर के इस कर्म को,
मानव की खुशियों को उसने,
अपना जन्नत मान लिया |

पर मानव था बड़ा कृतघ्न,
सारे परोपकार भूल गया,
अपनी आवश्यकता के अनुसार,
पेड़ के अंग-प्रत्यंग काट दिया |

जाते-जाते पेड़ कहता गया,
हे मानव! मैने तेरा भला किया,
और तुने मुझे ठुकरा दिया,
मेरी ताकत को तु देखेगा ।

प्रकृति का कहर झेलेगा,
एक वक्त ऐसा आएगा,
तु फल-पुष्प के लिए तरसेगा,
वृक्ष का कथन सत्य हुआ |

प्रकृति है कहर ढाह रही,
चहुँ ओर फैला हाहाकार है,
अपने कर्मों का फल,
मानव अब है भुगत रहा |

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