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23 Nov 2021 · 1 min read

निर्दयी कोरोना

शीर्षक- है कितना निर्दयी कोरोना

हो न कोई अब काल कलवित,
जुदा कोई अपनों से हो ना।
बिछड़ गए हैं जाने कितने,
है कितना निर्दयी कोरोना।।

अटक गई हैं कहीं पे साँसे,
बोझिल हो गईं कहीं पे आँखे।
आस-निरास का खेल कहीं पे,
कैसे कोई अब धीरज राखे।
बिलख रहा कहीं पे कोई,
सिसक रहा है हर एक कोना।
बिछड़ गए हैं जाने कितने,
है कितना निर्दयी कोरोना।।

कहीं पे ममता तड़प रही है,
कहीं पिता का साया छूटा।
महामारी के कारन कितने,
वनिता का अवलंब है टूटा।
आँचल माँ का काम न आया,
जान बन गई आज खिलौना।
बिछड़ गए हैं जाने कितने,
है कितना निर्दयी कोरोना।।

-शालिनी मिश्रा तिवारी
(बहराइच, उ०प्र० )
ईमेल-shalini.bahraich@gmail.com

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