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13 Nov 2021 · 4 min read

पचास रुपए का रावण

वो दशहरे का ही दिन था। मैं बाल कटवाने नाई की दुकान पर गया हुआ था। भीड़ बहुत थी, सो बाहर पड़ी मेज़ पर ही बैठ गया।
दोपहर की हल्की धूप थी और हवा में त्यौहार की गंध तैर रही थी। हर ओर रावण, मेले और बच्चों की चहक गूंज रही थी।

तभी पाँच-छह बच्चों का झुंड बगल वाली दुकान के सामने आकर रुकता है। सभी साइकिल से थे — उम्र रही होगी आठ से बारह साल के बीच।
वो एक बढ़ई की दुकान थी। दुकान के बाहर तख़्त, सीढ़ियाँ, बांस के गट्ठर, और छह-सात छोटे-बड़े रावण सजे हुए थे — जैसे कोई चुपचाप पंक्ति में जलने की प्रतीक्षा कर रहे हों।

दुकानदार और उसकी पत्नी एक नया रावण बना रहे थे। खटिया पर बगल में एक चार-छह महीने का बच्चा सो रहा था, उसके पास ही एक दस-बारह साल की लड़की बैठी कुछ पढ़ने में मग्न थी — शायद स्कूल की किताबें थीं, शायद जीवन का पाठ।
तभी उनमें से एक लड़का बोला,
“रावण चाहिए!”
बढ़ई की पत्नी का चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा। शायद उनका आज एक भी रावण नहीं बिका था। जैसे उम्मीद की लपटें बुझती-बुझती फिर से सुलग उठी हों। वह बोली,
“कौन-सा चाहिए?”

सब लड़के उत्सुकता से रावण देखने लगे। कोई कहता — “ये अच्छा है”, तो कोई कहता — “नहीं, वो वाला लेंगे!”
बच्चों की आँखों में चमक थी, मानो रावण खरीदना नहीं, कोई सपना हासिल करना हो।

फिर लड़कों ने बढ़ई से उनके दाम पूछे।
हर रावण की कीमत उसके आकार के अनुसार तय थी — कोई डेढ़ सौ का, कोई ढाई सौ का, सबसे बड़ा रावण पाँच सौ का।
तभी उनमें से एक लड़का थोड़ा संकोच के साथ बोला,
“पचास रुपए का दोगे?”
बढ़ई बोला,
“पचास रुपए का कौन-सा रावण मिलता है?”
लड़के बोले,
“हमको पचास रुपए में ही चाहिए…”
उस लड़के ने झिझकते हुए जेब से मुड़ी-तुड़ी नोट निकाली और बोला,
“हमने सब मिलाकर इतने ही जोड़े हैं…”

बढ़ई ने एक क्षण रुककर उन्हें देखा। उनके चेहरे पर उत्साह था, आँखों में उम्मीद थी — और जेब में केवल पचास रुपए।

बढ़ई बोला,
“मेरे पास पचास रुपए का कोई रावण नहीं है। बगल में दूसरी दुकान है, वहाँ पता कर लो।”
लड़के उदास मन से मुड़े और साइकिल की घंटी बजाते हुए आगे बढ़ने लगे।
तभी उसकी पत्नी ने कहा,
“सुनो, जाओ नहीं… ये डेढ़ सौ वाला ही सौ में दे दो, कुछ तो बिका हुआ लगेगा आज!”
उनमें से एक लड़का धीमे स्वर में बोला,
“हमारे पास केवल पचास रुपए ही हैं… बस उतने में दे दो।”

उसकी आवाज़ में न तो माँग थी, न याचना — बस एक मासूम आग्रह था।
पत्नी ने अपने पति की तरफ देखा — आँखों में वो वही प्रश्न था जो हर दिन का हिस्सा बन चुका था: “क्या थोड़ा झुक सकते हैं हालात के आगे?”
बढ़ई ने आंखों से ही इशारा कर दिया — नहीं।

पत्नी ने गहरी सांस लेते हुए कहा,
“बच्चों, हमारे पास पचास रुपए का कोई रावण नहीं है…”
लड़कों का झुंड आगे बढ़ गया।
दोनो फिर से उसी अधूरे रावण में डूब गए। घर की चिंता फिर से उनके हाथों की रचना में उतर आई।

थोड़ी देर बाद वही सब लड़के उसी रास्ते से लौटते दिखाई दिए। उनकी साइकिलों पर एक छोटा-सा रावण रखा था — बहुत ही छोटा। बांस की पतली फर्चियों से बना, रंग-बिरंगे काग़ज़ों से सजाया गया।

लेकिन उनके चेहरों की मुस्कान किसी राजा की विजय से कम नहीं थी।
वे इतने प्रसन्न थे मानो अयोध्या का सारा राजपाठ उन्हीं को मिल गया हो।
वे चिल्ला रहे थे,
“आज हम भी रावण जलाएंगे! आज हम भी रावण जलाएंगे!”
उनकी आवाज़ में जीत की मिठास थी — जैसे वे राम बन गए हों और अपने भीतर के डर को जलाने निकले हों।

बढ़ई और उसकी पत्नी उन्हें जाते हुए देख रहे थे।

पत्नी बोली,
“आज हमारा कोई रावण बिकेगा या नहीं? बहुत दिनों से एक भी सामान नहीं बिका है। त्यौहार सिर पर है और घर में खाने के नाम पर एक दाना भी नहीं है आज।
कम से कम पचास रुपए में बेच देते तो सुबह का चाय-पानी ही हो जाता!”

बढ़ई बोला,
“तुम जानती हो, वो रावण बड़ा था, मोटी फर्चियों से बना था।
हमारी मेहनत सस्ती नहीं हो सकती… और अगर भगवान चाहेगा तो शाम तक कुछ न कुछ बिक ही जाएगा।”
मैं बैठे-बैठे सोच रहा था —
“आख़िर रावण के भी क्या दिन आ गए हैं…
जिसकी सोने की लंका थी, वो आज पचास रुपए में बिक रहा है।
शायद हर रावण को अंत में जलना ही होता है — कोई अग्नि से, कोई भूख से, कोई मजबूरी से।”

बढ़ई की पत्नी बच्चों के उस झुंड को दूर तक टकटकी लगाए देखती रही। उनके कंधों पर रखा वह छोटा-सा रावण जैसे उसकी आँखों में ठहर गया हो।
उसके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान थी।
शायद वह उस खुशी की कल्पना कर रही थी, जो उन बच्चों को मिली थी — और जो उससे छूट गई थी।
शायद वह सोच रही थी,
“चलो, मेरा दशहरा तो नहीं बन सका,
पर इन बच्चों का तो बना…
और क्या चाहिए एक रचयिता को — कि उसकी बनाई चीज़ से किसी का उत्सव बन जाए?”

उसी समय खटिया पर सोया बच्चा रोने लगा। वह उसे चुप कराने लगी — आँचल से उसे थपकियाँ देती, मानो त्यौहार को दिलासा दे रही हो।

उसी वक्त मेरा नंबर आ गया और मैं दुकान के अंदर चला गया —
लेकिन भीतर बाल कटते रहे और बाहर मेरा मन उन बच्चों की आवाज़ों में अटका रह गया…
“आज हम भी रावण जलाएंगे!”

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