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20 Sep 2021 · 2 min read

वो काली रात बीत रही यूँ ही…

शीर्षक:वो काली रात बीत रही यूँ ही…

निःशब्द कर मुझे, निरंतर ढलान की और थी

निः स्तब्ध सी, वो रात मेरे अंदर अनेक प्रश्न लिए

वो काली रात बीत रही यूँ ही…

निरुत्तर थी मैं,उस रात के हर प्रश्न के लिए

मुझे कुछ कहने से असहाय सा महसूस हुआ

वो काली रात बीत रही यूँ ही…

मैं कुछ कह भी नही पा रही हूँ अपने ही हाल को

मैं क्यो नही भूल पा रही हूँ उस काली रात को

वो काली रात बीत रही यूँ ही…

निःस्तब्ध कर गई थी वो रात न जाने क्यो मुझे

झकझोर गई थी निःशब्द कर गई वो रात मुझे

वो काली रात बीत रही यूँ ही…

डाल कर, बस इक अंधेरी सी चादर चाँद भी छिप गया

तन्मयता से, निःस्तब्ध खामोशी पिरो कर मेरे अन्तःमन में

वो काली रात बीत रही यूँ ही…

रात को, भुला देने की कोशिश में यादों के नश्तर फिर से

जख्मो के नासूर सा बन गई वो काली रात फिर से

वो काली रात बीत रही यूँ ही…

निरंतर, सिसकती रही थी रात मेरे अंदर

छिप कर यादों की बारात निकल रही थी अंदर

वो काली रात बीत रही यूँ ही…

दुबक कर, चीखते चिल्लाते निशाचर,मेरे दिल के अहसास

जौसे निर्जन तिमिर उस राह में, अकेलेपन का हो अहसास

वो काली रात बीत रही यूँ ही…

ना कोई रहवर न रहनुमा पीड़ में ही, घुटती रही थी रात !

मेरे दर्द को नश्तर बन चुभती रही वो लंबी सी रात

वो काली रात बीत रही यूँ ही…

ऊपर चाँद आया था लगा धवल चांदनी देगा मुझे

उतर कर बस कुछ पल, वो तो यादों की अगन दे गया मुझे

वो काली रात बीत रही यूँ ही…

वो तारे भी बने थे सहचर लेकिन, अधूरी सी थी वो रात

सब वैसा ही था बस बदली थी मेरी रात

वो काली रात बीत रही यूँ ही…

तारे, रात के सारे सहारे, लगा जैसे गुमसुम सोए हो

अंतर में शोर कर! अकेली ही, जगती रही वो मेरी रात

वो काली रात बीत रही यूँ ही…

जमी पर, भोर ने दी थी दस्तक,मै तो थी इंतजार में

उठकर नींद से भागा जैसे चाँद रह गया हो पीछे

वो काली रात बीत रही यूँ ही…

आप बीती, सुना गई थी रात वो काली रात

निःशब्द कर मुझे, निरंतर पीड़ा देने वाली रात

वो काली रात बीत रही यूँ ही…

नि:स्तब्ध सी, वो रात शांत सी पर अंदर हिलोर भरती

वो लंबी सी काली रात मेरे मन को दुख से भरती

वो काली रात बीत रही यूँ ही…

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