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22 Jun 2021 · 1 min read

जिंदगी का हिसाब

चार दिन की जिंदगी औ बेशुमार अरमान ,
कितने है इसमें रूबरू कितने अनजान ।

कुछ ख्वाइशों पाली है और कुछ आर्जुएं,
देखकर खुदा भी हो रहा है हम पर हैरान ।

कुछ तो पोशीदा और कुछ तो हैं गुमनाम,
और भी दबी हुई चाहतें कैसे करे पहचान?

कितनी हो जाती हैं मुकम्मल ,कितनी नहीं,
छोटी सी जिंदगी के कंधों पर इतना सामान !

जिंदगी असां तो हो गई ही इनके बिना मगर ,
कैसे होगा धरती पर वक्त गुजारना आसान?

या तो हम फकीर बन जाए या कोई संन्यासी,
इन्ही की जिंदगी में नही होते कोई अरमान ।

मगर हम तो आम इंसान है कोई फकीर नहीं,
हमारी तो जिंदगी इनके बिना होगी वीरान ।

अब दिल दिया है तो उसमें हसरतें तो होंगी,
या खुदा दिल ही न देता तो न होते अरमां।

देकर दिल खुद वो मजे लेता है दूर बैठकर ,
उसे नहीं अंदाजा ये चाहतें करती है परेशान।

“मेरी कितनी पूरी हुई और कितनी रही अधूरी” ,
अरमानों का हिसाब लगाते है हम इंसान ।

और खुदा हिसाब लगाता है हमारी सांसों का,
और हर पल गिनता रहता है हमारी धड़कन ।

इन्हीं अरमानों,ख्वाइशों की गठरी लादकर मरेंगे ,
और जन्म जन्म का इनके साथ बंधा रहेगा बंधन ।

बेहतर होगा “अनु,” यह बोझ थोड़ा कम कर ले ,
खुदा के वास्ते अपनी रूह को और न कर परेशान।

3 Likes · 8 Comments · 731 Views
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