Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
16 Jun 2021 · 1 min read

भारतीय संस्कृति एवं आधुनिकता

ब्रद्बावस्था का
अंतिम पड़ाव
चिंता
उदासी
बेचैनियों की
गठरी
खोलते हुए
दादाजी
मुझे अकेला
पाकर वोले-
बेटा
ये पछुआ हवा
पूस माह में
तुफानी होकर
चल रही है
पूरे शरीर में
ठिठुरन
बढ़ रही है
जोड़-जोड़
पीड़ा गृस्त है
प्रकति के तीब्र
परिबर्तन से त्रस्त है।
और गी्श्म ऋतु में
ये हवा
लू बनकर
पूरे शरीर को
झुलसा देती है
कच्ची
अधपकी फसलों को
समय से पूर्व
पका देती है।
पूरे बर्ष
ये हवा
बालि बनकर
पूरवा पवन को
कांख
में दबाये
रहती है
पूरवा
इस पाश्चत्य युग में
भीष्म पितामह
की भांति
मृत्यु शैय्या
पर लेटी
अंतिम सांसे ले रही है।
अरे बेटा
इस हवा के
तीब्र बेग
के कारण
नव वधुओं
के सिर पर
पल्लू घूंघट
नही रूक पाते
बेचारी
अपने अंग बस्त्रों
को बार-बार
सभांलती
फिर भी
रपट जाते हैं
और बेटियों के
रेशमी
पारदर्शी
दुपट्टे
कटी पतंग
की भांति
उड़कर
ब्योम को
छूकर
अदृश्य हो गये हैं
फैशन
की बाढ़ मे
इनको
कहां
कैसे
ढूँढो
अंतरिक्ष में
गुम हो गये हैं।
रचयिता
रमेश त्रिवेदी
कवि एवं कहानीकार
यह कविता समाचार पत्र दैनिक प्रतिपल मे प्रकाशित हो चुकी है

Loading...