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2 Jun 2021 · 1 min read

कितने ग़मगीन हैं जमाने में।

कितने ग़मगीन हैं जमाने में।
देखिये जा सुरूर खाने में।
एक सच हम नहीं बता पाते।
जिंदगी बीतती बहाने में।
खुद ही बनते हैं खोटा सिक्का हम।
और फिर गर्क हैं भुनाने में।
जिंदगी अपनी एक नगमा है।
हम ही डरते हैं गुनगुनाने में।
मौका मिलता न चूकता कोई।
कमनसीबों पे जुर्म ढाने में।
यूं ही वोटो की फसल कटती है।
हम है उस्ताद बरगलाने में।
खूब देखी है ” नज़र” नें दुनिया।
सिर्फ मय ही नहीं पैमाने में।

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