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20 Apr 2021 · 5 min read

आज़ाद गज़लें 2021

पत्थर पे फूल खिला सकते हो क्या
सोई हुई ज़मीर जगा सकते हो क्या ।
बड़ा गरूर है अपने तरक़्क़ी पर तुम्हें
मरे हुए को भी जिला सकते हो क्या ।
बड़े आए हो यहाँ तुम मसीहा बनकर
पत्थरों को भी पिघला सकते हो क्या ।
किस वहम-ओ-गुमान में जी रहें हो
वक़्त को बेवकूफ बना सकते हो क्या।
अज़ीब अहमक हो यार,अजय तुम भी
गजलों से गरीबी मिटा सकते हो क्या।
-अजय प्रसाद

भूखे पेट तो प्यार नहीं होता
खाली जेब बाज़ार नहीं होता ।
पढ़ा-लिखा के घर पे बिठातें हैं
यूँही कोई बेरोज़गार नहीं होता ।
बेलने पड़ते हैं पापड़ क्या क्या
आसानी से सरकार नहीं होता ।
आजकल के बच्चों से क्या कहें
सँग रहना ही परिवार नहीं होता ।
दिल में गर खुलूस न हो अजय
तो फ़िर सेवा,सत्कार नहीं होता।
-अजय प्रसाद

जी रहें हैं वो गरीबों की हाय लेकर
जैसे खुश होता है बच्चा टॉय लेकर।
जानतें हैं नंगे आएं हैं नंगे ही जाएंगे
भला करेंगें क्या अकूत आय लेकर ।
ये तुम जो दिनरात जुगाड़ में लगे हो
क्या होगा ज़िंदगी भर उपाय लेकर ।
अमीरी-गरीबी हैं एक दूजे के पूरक
संबल का गुजारा है असहाय लेकर ।
शायद ज़िंदादिली इसी को कहते हैं
ज़िंदगी हरहाल जीए एन्जॉय लेकर ।
-अजय प्रसाद

मुझें साहित्यकार समझने की आप भूल न करें
उबड़-खाबड़,कांटेदार रचनाओं को फूल न कहें।
मेरी रचनाएँ बनावट और सजावट से हैं महरूम
कृपया अलोचना करें मगर ऊल-जुलूल न कहें ।
हाँ चुभते ज़रूर हैं चंद लोगों की नज़रों में यारों
हक़ीक़त में हैं नागफनी ,इन्हें आप बबूल न कहें।
कुछ तो बदलाव लाया जाए परंपरागत लेखन में
सदियों से रहा यही है साहित्य का उसूल न कहें ।
बड़े आए अजय तुम साहित्य के सुधारक बनकर
बहुत सह लिया हमनें आपको,अब फ़िज़ूल न कहें
-अजय प्रसाद

काटते हैं मुसीबतों का पहाड़ ‘मांझी’ जैसे
मसअले उजाड़ जातें हैं हौसले,आंधी जैसे ।
जालिमों कर लो ईज़ाद नए ज़ुल्मो सितम
ऊब गये हम लड़ते-लड़ते अब ‘गांधी’जैसे ।
खुदा भी मेहरबाँ है बिलकुल उसी तरह से
होतें महलों में बसे शहंशाहों के बांदी जैसे ।
गमों के गिर गए हैं दाम गरीबी देखके यारों
खुशियाँ हो गई महंगी सोने और चांदी जैसे।
अफ़सोस अजय तेरा ज़ेहनो ज़मीर ज़िंदा है
काश! जी लेता तू भी आधी आबादी जैसे
-अजय प्रसाद

बात को बतंगड़ बनाना ,कोई आप से सीखे
बेशर्मी की हद तक जाना कोइ आप से सीखे ।
यूँ तो कितने आये और गए सियासत में हुजूर
मौके का फायदा उठाना कोई आप से सीखे ।
हर्रे लगे न फिटकरी,मगर रंग चोखा हो जाए
भई , जनता को भरमाना कोई आप से सीखे।
मिट्टी के माधो बना कर रखा है विपक्षियों को
सियासी पैतरें आजमाना कोई आप से सीखे।
तुम भी कम नहीं हो लंबी हाँकने में अजय
घटिया शायरी पे इतराना कोई आप से सीखे ।
-अजय प्रसाद

खुद को तू खुदगर्ज होने से बचा
बहती गंगा में हाथ धोने से बचा।
भले लोग समझे पत्थर दिल तुझे
मगर घड़ियाली रोना रोने से बचा।
देख खूबसूरती होती है इक बला
अपनी आँखों को खोने से बचा ।
सादगी भी सितम ढाती है कभी
खुद को ही शिकार, होने से बचा ।
दिलो-दिमाग के झगड़े में अजय
अपनी लुटिया को डुबोने से बचा।
-अजय प्रसाद

बेहद मामूली और गौण हूँ
इल्म है मुझे की मैं कौन हूँ ।
मुझे पता है औकात मेरी
इसलिए तो रहता मौन हूँ ।
गलतफहमि आप न पालें
मैंने कब कहा,मै फिरौन हूँ ।
वक्त बहुत खुश है मुझ से
नज़रों में उसके मैं गौण हूँ ।
दहशत में हैं लिखने वाले
क्या मैं साहित्यक डौन हूँ ?
-अजय प्रसाद

हम से तेरे ये नाज़ो नखरें उठाए न जाएंगे
गली में तेरे मुझसे चक्कर लगाए न जाएंगे।
कबूल हूँ गर इश्क़ में तो तू खुद आके मिल
इस कदर भी आशिक़ी में झुकाए न जाएंगे ।
हाँ तू है बेहद खूबसूरत तो बता मै क्या करूँ
तारीफों के पुल हमसे और बनाए न जाएंगे ।
मेरी भी कुछ हैसियत तो होगी तेरी नज़रों में
रिश्ते गुजरे वक्त की तरहा निभाए न जाएंगे।
फारिग हो जा मुझसे या फना कर दे मुझे तू
फ़ालतू तेरे लिए दुसरे तो ठुकराए न जाएंगे ।
-अजय प्रसाद

प्रेम में प्रकृति से यूँ मुहँ मत मोड़ो
चाँद,सूरज को बख्शो,तारे मत तोड़ो ।
बादलों को रहने दो अपनी जगह
उन्हें हुस्न के ज़ुल्फ़ों से मत जोड़ो ।
फूल,कलियाँ हैं बागों की अमानत
बहारों से सबका रिश्ता मत तोड़ो।
बिजली,बारिश,सावन की घटा को
कृपा करके अपने हाल पर छोड़ो ।
प्रेम में प्रकृति ने लुटा दिया खुद को
या खुदा!उसे अब और मत तोड़ो ।
प्रेम में सिर्फ़ सेवा औ त्याग चाहिए
जिस्म के लिए रूह तो मत तोड़ो ।
बस बहुत हो गया अजय बकबक
खामखाह अपना सर मत फोड़ो।
-अजय प्रसाद

देखें ज़रा क्या पैगाम आता है
ज़हर या फिर ज़ाम आता है ।
चराग जो जला है आंधियों में
हवाओं से भी सलाम आता है ।
जाने क्यों जल जातें हैं लोग
ज़िक्र में जब वो नाम आता है ।
सुख में सब आते हैं बिन कहे
दुख में बस आँसू काम आता है ।
तेरी शायरी को अजय क्या कहें
जैसे मेढकी को जुकाम आता है ।
-अजय प्रसाद

विज्ञापनों के बहकावे में न आ
बेसिर-पैर के दिखावे में न आ ।
जो गुज़ार चुके हैं पूछ ले उनसे
यूँ ज़िंदगी के छ्लावे में न आ ।
हमेशा तबाही लेकर ही आती है
इस तकनीकि भूलावे में न आ ।
गल्तियों से सबक लेना तू सीख
फ़िर से उनके दोहरावे में न आ ।
हाँ वक्त देता है मौका सुधरने का
चका चौंध के शोरशरावे में न आ ।
-अजय प्रसाद

क्यों है नारा “बेटी बचाओ ”
क्यों नहीं”बेटों को समझाओ “।
आखिर कर बेटियाँ बचे कैसे
यही बेटों को भी तो बताओ ।
जब हक़ है दोनों के बराबर
तो प्यार दोनों पर लुटाओ ।
बेखौफ़ होके ज़िंदगी गुजारे
भई,ऐसा भी माहौल बनाओ ।
गर इतना-सा भी न कर सके
तो फिर ये नारा मत लगाओ ।
-अजय प्रसाद

शादी से बड़ी कोई भूल नहीं है
और ये सच,अप्रैल फूल नहीं है ।
खुश वही है रहता शादी के बाद
जिसके लिए पत्नी बबूल नहीं है ।
जींदगी बेवकूफ बनाती है रोज़
यहाँ कोई वार्षिक उसूल नहीं है।
घर,दफ़तर,बाज़ार या रिश्तेदार
कौन देता यहाँ पर हूल नहीं है ।
बंद करो न अजय ये रोना-धोना
हमारे पास वक्त फिजूल नहीं है ।
-अजय प्रसाद

तोड़ दिया दिल मेरा उसने खुद से अटैच करके
छोड़तें है क्रिकेट में फिल्डर ज्यूँ बॉल कैच कर के ।
इस कम्बखत इश्क़ ने मुझे अब कहीं का न छोड़ा
दिल और दिमाग को रख दिया है डिटैच कर के।
मंदिर,मस्जिद,चर्च औ गुरुद्वारे से भी खफ़ा हूँ मैं
क्यों मेरी जोड़ी बनाई गई थी मिस मैच कर के ।
अच्छा भला जी रहा था मैं बेहद खुशी से ज़िंदगी
रुलाया गया है मुझे,गमों को मुझ से पैच करके ।
ये क्या बात है कि उटपटांग लिखने लगे अजय
उसके मुहल्लेवाले कहीं रख न दे डिस्पैच कर के ।
-अजय प्रसाद

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