Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
16 Apr 2021 · 1 min read

दाँव पर जीवन हमारा हम जुआरी

जानते हैं हार निश्चित है हमारी
प्राण हाँथों में लिए संघर्ष जारी
आधुनिक युग के युधिष्ठिर हम हुए
दाँव पर जीवन हमारा हम जुआरी।

कहर वाले पहर में उत्कर्ष है
बाढ़ है अठखेलियों की आपदाओं में
जीवनों की डूबती नैया की चीखों से
खलबली सी मच गयी है जीविकाओं में

मृत्यु सजनी सी सजी है कौन पहचाने
मूर्खता का शहर है सद्बुद्धि हारी।

राजगद्दी में धँसी दरबार की आँखें
मातहत की वेदना को पढ़ न पाएँगी
यातना की भीड़ के भय शिखर पर
एकला की त्यौरियाँ तो चढ़ न पाएँगी

इसलिए तो कर समर्पण चल दिया देकर
खुद के हाँथों खुद के मरने की सुपारी।

बह गया मासूमियत की आंख का पानी
पर न सिंचित हो सकीं संवेदनाएँ
यत्न ने कदमों में पगड़ी भी रखी
किन्तु खाली हाँथ लौटीं याचनाएँ

कर्णप्रिय खुद प्रार्थनाएँ बन न पायीं
या हुए हम दीन के दर के भिखारी।

काल का अब भय नहीं है, जीविका का है
जा खड़ा है भाग्य भी प्रतिपक्ष में
कान बहरे हो गए हैं कर्णधारों के
मृत हुआ वात्सल्य माँ के वक्ष में

शाख का बचना असम्भव मूल को भी
काट देगी काल की कपटी कुठारी।

संजय नारायण

Loading...