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20 Nov 2020 · 1 min read

उम्मीद की कस्ती

हर संघर्ष मे, तपना पड़ता हैँ //
लोहे की तरह, गलना पड़ता हैँ //

एक बार नहीं, कई बार टूटना पड़ता हैँ //
क्रोध की धधकती, लौ मे भी जलना पड़ता है //

सायद सपनो को भी कभी, टूटना पड़ता हैँ //
उम्मीदों को भी साथ, छोड़ना पड़ता हैँ //

सायद, सपनो का सौदागर बनने से चूक जाऊ //
क्युकी यहां तो, आशा की कस्ती को भी डुबोना पड़ता हैँ //

जिन्दगी का हर एक क्षण, एक जंग हैँ साहब //
यहां हर एक बून्द रक्त से, इसका हिसाब करना पड़ता हैँ //

कविराज:-श्रेयस सारीवान

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