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3 Jun 2020 · 2 min read

मां का आंचल खींच रहा था

बिछुड गई थी मां बेटे से
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मां का आंचल खींच रहा था
शायद भूखा झींक रहा। था

मां जागेगी यही सोचकर,
कोशिश मे तल्लीन रहा था
पर ना जाने मां कब सो गई,
वो इससे अनजान रहा था

मां तुमको उठना ही होगा,
चादर से संघर्ष रहा था
मां बोलेगी बेटा उसको,
उसको ऐसा हर्ष रहा था

कई बार रोया भी होगा ।
कई बार कहीं खोया होगा।।

मां जग जाये यही सोचकर,
चादर को झकझोडा होगा।
बच्चा था पर मां के खातिर,
उसनें खुद को तोडा होगा।।

पहले तो मां जग जाती थी।
थोडा रो दूं उठ जाती थी।।

आज ना जानें क्या हुआ है।
मां ने अभी तक नहीं छुआ है।।

सारी कोशिश उसनें करली।
मां की कोली तक भी भरली।।

शायद ये कोई देख रहा था ,
मन ही मन कुछ सोच रहा था।
पर ये मंज़र वो नहीं निकला,
जैसा मंज़र वो सोच रहा था।।

बिछुड गई थी ,मां बेटे से ।
कह ना पायी कुछ, बेटे से ।।

थोड़ा लाड लडाया होता ।
मुझे भी साथ सुलाया होता।।

शायद वो ये सोच रहा था।
मां को पल पल नोंच रहा था।।

बड़ा अभागा था ये बच्चा।
करता क्या ये मन का सच्चा।।

जिसनें इस मंजर को देखा,
फूट -फूट वो रोया होगा ।
मरी पड़ी मां की चादर को,
जब बच्चे ने खींचा होगा।।

सोचकर आये कलेजा मुंह को,
“सागर” दिल को दबोचा होगा।
हाय! वक्त का कैसा मंजर,
किसनें ऐसा सोचा होगा।।

छोड गई थी मां बच्चे को।
तोड़ गई थी मां बच्चे को।।

कई दिनों की भूखी प्यासी ,
जो कल तक भी डोल रही थी।
मां- मां की सुनकर बोली भी,
कहां अभागन बोल रही थी।।
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मूल रचनाकार… डॉ.नरेश कुमार “सागर”
जिला-हापुड, उत्तर प्रदेश
nsnareshsagar1@gmail.com

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