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28 Apr 2020 · 1 min read

नवगीत

बाकी तो सब ठीक-ठाक है
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कैसे आएँ गाँव ‘चतुर्भुज’ !
रेल-मार्ग भी बंद पड़ा है,
बसें न चलतीं,
आवाजाही बंद पड़ी है,
ठीक-ठाक सब, घर पर है न !

दस से दो तक बैंक खुल रहे,
सामाजिकता की भी दूरी,
आटा-चावल की दुकान पर,
लंबी लाइन की मजबूरी,
सब्जीवाले जब-तब आते,
और दूध की लड़ा-लड़ी है.

शहर किलाबंदी के जैसा,
चुप्पी साधा अगल बगल है,
कालोनी है घरबंदी में,
धूपछाँह की चहल-पहल है,
सहमे-सहमे चौक-चौपलें,
दुर्दिन की यह अजब घड़ी है.

चारोंओर सशंकित हैं स्वर,
आतंकित है कोना-कोना,
शेयर-पूँजी उथल पुथल है,
संकट में हैं चाँदी-सोना,
सर्दी-ज्वर-खाँसी का होना,
कोरोना की जुडी कड़ी है.

घर में रहना आवश्यक है,
यही असुविधा यही असर है,
पड़ा शहर के एक किनारे,
छोटा सा यह अपना घर है,
सदा हाथ साबुन से धोना
ही बचने की एक जड़ी है.

दादी सौ के ऊपर पहुँचीं,
दो दिन से बीमार पड़ी हैं.
कहतीं ‘लवकुश’ को बुलवा दो,
इसी बात पर अड़ी पड़ी हैं,
बाकी तो सब ठीक-ठाक है,
माँ को लानी एक छड़ी है.

शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ

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