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5 Apr 2020 · 2 min read

न्यायालय और व्यवस्था

एक *महिला मित्र ने पूछा है की :-
क्या *न्यायालय में *न्याय मिलता है ?
.
अब ये भला कोई *पीडित थोड़े पूछेगा !
एक *अहंकार से ग्रस्त मनुष्य ही पूछ सकता है.
?
मेरा *होमवर्क
क्या इंसानी व्यवस्था
कौम जाति वर्ण अछूत
संपत्ति न रखने का अधिकार,
महिलाओं की घर में कैद,
विधवा विवाह,
बुरका प्रथा.
कहाँ है
तथाकथित ईश्वर.
इस दुखद घडी में …. कोटि देवता
जेहादी / प्रार्थना / सत्संग.
.
ये सब न्याय व्यवस्था है.
शायद नहीं ???

क्योंकि हमारे मनोबल को सीमित कर दिया गया है.
*आत्मबल/आत्मविश्वास कैसे बना रहे.
.
हम *खुद से एक भी *कदम चलने में *असमर्थ.
और खुद को पागल वा अपाहिज मानने को भी तैयार नहीं.
.
फिर इंसान और पिशाच में अंतर ही क्या रह जाता है.
प्रकृति वा अस्तित्व रहस्यमयी है.
उसे जानने को *ज्ञान और
*सिद्ध करके दिखाने का नाम *विज्ञान
.
1. मायावी बताकर धोखे करना,
2. एक अदृश्य ईश्वर/मसीह/अल्लाह
का अनुसरण करो अन्यथा ये हो जायेगा.
3. नाथ-संप्रदायी तंत्र/मंत्र/फूँक विद्या आदि से
मनोबल क्षीण/क्षमता क्षीण को डरा धमकाकर शोषण करना.
क्या कोई विद्या है.
4. डरे हुए सहमे आदमी मनघडंत सहायक तथ्य सामग्री जुटाते रहते है. और व्यवसाय सतत चलते रहता है.
5. रोचक कथा-कहानियों के शौकीन
जिन्हें ईश्वरीय और मानवीय व्यवस्थाओं का ख्याल नहीं रहता,
उन्हें तो भला, **मोक्ष चाहिए, वो बिन किये,
6.ऐसे आलसी/प्रमादी आदमी जो कुछ करने से बचते हैं,
इनके ग्रास है और सूत्रधार भी.
7. वे जीते जीवन में सही और गलत का विचार करने की बजाय,
अपनी *मनन *तर्क-शक्ति *निर्णय लेने जैसी वैयक्तिक फैसले लेने की डोर मदारी के हाथ में दे दे,
और इंसानियत को भूलकर आदमी आदमी में भेद करके ईष्या/घृणा द्वंद/द्वैत खडा कर देते हैं,
और मनुष्यता और प्रकृति को *विनाश के द्वार तक ले पहुंचे.
.
कह नहीं पावोगे.
हंसा तो मोती चुगे.
काक चेष्टा बको ध्यानम्
.
माया/जीव/ब्रह्म सब मिथ्या.
कल भी आदमी इसका पोषक था,
आज भी,
आगे भी रहेगा,
चिंता ये नहीं है,
कुछ तो प्रकृति/अस्तित्व,
इंसानी रचना में समझ पैदा करो,
.
वैद्य महेन्द्र सिंह हंस

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