कुम्हार
रचता है कुम्हार भी, नित माटी से लाल।
माटी की मूरत बना,जीवन देता डाल।। १
दूर करे तम को सदा,काट निशा का जाल।
जोत जले भगवान का, रौशन जग का भाल।। २
रोजी-रोटी के लिए, चाक चलाता रोज।
पेट मगर भरता नहीं, करे काम की खोज।।३
कुम्भकार गुरु ढ़ालता, दीप रूप में शिष्य।
चढ़े चाक पर जब मृदा, बनता तभी भविष्य।।४
ठोक-पीट कर प्यार से, पावक में दो सेक।
तप जाने के बाद ही,पात्र बनेगा नेक।।५
मिट्टी डाले चाक पर, करे नया निर्माण।
माटी की पुतला गढ़े, उसमें डाले प्राण।। ६
जीवन चक्की चल रही, सतत् छाँव या धूप।
कुम्भकार रचना करे, गढ़े रूप अनुरूप।। ७
घुमा-घुमा कर चाक को,करे धैर्य से काम।
मिट्टी के बर्तन गढ़े,पाते अल्प इनाम।।८
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली