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2 Mar 2020 · 1 min read

कोहरा

——–ग़ज़ल——-

जब ज़मी से भी ऊपर गया कोहरा
खौफ़ सूरज में इक भर गया कोहरा

फूटतीं बोलियाँ मुँह में जमनें लगीं
इस तरह सबके अंदर गया कोहरा

उस घड़ी रुत ने भी ले ली अंगड़ाइयाँ
छोड़ कर जब दिसम्बर गया कोहरा

दे के ख़िलक़त को बर्फ़ीली शामो सहर
पार सारी हदें कर गया कोहरा

साथ छोड़ी हवाओं ने उसका जभी
देख सूरज को फिर डर गया कोहरा

हर तरफ़ धुंध में हादसे हो रहे
बस यही देके मंज़र गया कोहरा

मुड़ के आएगा “प्रीतम” वो अगले बरस
जाते जाते ये कह कर गया कोहरा

प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती 【उ० प्र०】

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