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29 Sep 2019 · 3 min read

क्या यह महज संयोग था या कुछ और.... (1)

1.क्या यह महज संयोग था या कुछ और…?

हमारे रोजमर्रा के जीवन में कभी-कभी कुछ ऐसी घटनाएँ घटती हैं, जो अजीबोगरीब और अविश्वसनीय लगती हैं। मेरे साथ भी कई बार ऐसी घटनाएँ घटी हैं, जो लगती अविश्वसनीय हैं, परंतु हैं एकदम सच्ची।
सामान्यतः मैं कभी-कभार ही अपनी मोटर साइकिल पर किसी अपरिचित व्यक्ति को लिफ्ट देता हूँ, परंतु कई बार ऐसा भी हुआ है कि किसी अदृश्य शक्ति के वशीभूत होकर मैंने अपरिचित लोगों को लिफ्ट दी और इस बहाने कुछ अच्छा कार्य करने की खूबसूरत यादें संजो लीं।
‘क्या यह महज संयोग था या कुछ और…?’ श्रृंखला में मैं ऐसी ही कुछ घटनाओं का जिक्र करूँगा, जब मेरे माध्यम से कुछ अच्छा काम हुआ।
बात उन दिनों की है, जब मैं बी.ए. फर्स्ट ईयर में पढ़ रहा था। अप्रैल या मई 1993 का महीना था। गर्मी अपने चरम सीमा पर थी। परीक्षा का समय सुबह 11 से दोपहर 2 बजे का था। डिग्री कॉलेज, रायगढ़ में परीक्षा दिलाकर मैं अपनी खटारा लूना (मोटर साईकिल) से अपने गांव लौट रहा था। मेरा पेपर ठीक-ठाक ही बना था। इसलिए परिणाम को लेकर मैं निश्चिंत हो अपनी ही धुन में चला जा रहा था।
इतनी गर्मी थी कि इक्के-दुक्के लोग ही सड़क पर दिख रहे थे। जैसे ही मैं डूमरमुड़ा गाँव के पास पहुंचा, मुझे ध्यान आया कि मेरे पीछे कोई आदमी दौड़ते हुए आ रहा है। मैं मुड़कर पीछे भी देखा, पर कोई नहीं दिखा, परंतु पता नहीं किस अदृश्य शक्ति के वशीभूत होकर मेरी लूना यू-टर्न लेकर वापस रायगढ़ की ओर जाने लगी। लगभग तीन किलोमीटर पीछे जाने पर गड़उमरिया नाले (बिलाई नरवा) के पास एक आदमी, जो सकल-सूरत से पक्का देहाती और जनजातीय समुदाय का लग रहा था, दौड़ता-हाँफता हुआ आता मिला। मैंने उसे बैठने को कहा, तो वह कृतज्ञता व्यक्त करते हुए बैठ गया।
मैंने रास्ते में उससे पूछा कि वह कहाँ से आ रहा है और यूँ दौड़ते हुए क्यों ?
उसने अपनी भाषा सादरी में बताया कि “भैयाजी, मैं पत्थलगांव के करीब स्थित गांव तोलगे (रायगढ़ से लगभग 100 किलोमीटर दूर स्थित) से आ रहा हूँ। मेरी ससुराल डूमरमुड़ा के पास स्थित गाँव केसला में है। मेरे ससुरजी का रात में ही देहांत हो गया था। केसला के सरपंचजी ने पत्थलगांव थाने में टेलीग्राम कर सूचना दी थी। पत्थलगांव पुलिस ने सुबह मुझे खबर की। खबर पाते ही मैं बस, ट्रक और लिफ्ट लेते, दौड़ते-भागते आ रहा हूँ। मेरी पत्नी अपने माँ-बाप की इकलौती संतान है। परंपरा के अनुसार दामाद अर्थात मुझे ही मुखाग्नि देनी होगी। आज पूरे गांव में किसी के घर अभी तक चूल्हा नहीं जला होगा, क्योंकि जब तक मैं केसला नहीं पहुंच जाता, बॉडी नहीं उठाई जाएगी।”
उल्लेखनीय है कि उस जमाने में मोबाइल और टेलीफोन आजकल की तरह हर गाँव, घर में नहीं होता था। यातायात के साधन भी उपलब्ध नहीं होते थे। गिने चुने घरों में ही मोटरसाइकिल होते थे।
जैसे ही हम डूमरमुड़ा के पास पहुंचे, उसने मुझे उतारने का आग्रह किया, पर मैंने उसे उतारने की बजाय केसला गाँव के पास स्थित तालाब तक छोड़ दिया। जब वह उतरा तो उसने कृतज्ञतावश मेरे पैर पकड़ लिए, “महाराज, आप मिल गए, तो मैं कम से कम एक घंटा पहले ही पहुंच गया। आपका ये एहसान…”
मैंने कहा, “भैया, पहले ही बहुत देर हो चुकी है, अब और देर मत करो। जाओ जल्दी से। सब लोग आपका इंतजार कर रहे होंगे।”
मुझे लगता है कि शायद उस आदमी की थोड़ी-सी मदद के लिए ही मुझे वापस लौटना पड़ा था। खैर, कारण चाहे, कुछ भी मुझे बहुत संतोष है कि मैं उस दिन कुछ अच्छा काम किया था।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायगढ़, छत्तीसगढ़
9827914888, 9109131207

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