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30 Aug 2019 · 1 min read

मैं आग बो रही हूँ

कितनी पुरानी दविश

कितना पुराना है घाव उनका

मैंने तो वो जिया ही नही

जिसे भोगा है उन्होंने

कभी किसी ने मुझे

टूटे हुए बर्तन में

जूठा खाना फेंक के नही दिया

टूटे कप में चाय पीने को नही दिया

देता तो फेंक मारती उसके मुँह पे

मैंने कभी फेका पैसा नही उठाया

कभी देहारी के लिए किसी मालिक ने

मेरे अंतःवस्त्र में हाँथ नही डाला

डालता तो काट देती

मगर उनके शरीर पे वस्त्र होते हुए भी

निर्वस्त्र देखेजाने को उन्होंने

सदियों से सदियों तक जिया

ऐसे जिया मानों किस्मत हो

मानों देवताओं ने आदेश दिया हो

मैं कभी किसी के पैरों में उकुरु नहीं बैठी

पर वो बैठे, वो सदियों वहीं बैठे रहे

अब वो उठान चाहते हैं,

उठ के खड़ा होना चाहते हैं

अपने खुद के पैरों पे, रीढ़ की हड्डी के साथ

हमारी बगल में आ बैठना चाहते हैं

अब वो खुल के उड़ना चाहते हैं

मैं तो बस उन हाथों को

अपने हाँथ में ले

उनको अपने साथ में ले

उनके दर्द की आवाज होना चाहती हूँ

उनके दर्द को शब्दों में पिरोना चाहती हूँ

मगर कुछ लोग कहते हैं

मैं आग बो रही हूँ, मैं खाब बो रही हूँ

मैं सैलाब न्योत रही हूँ

क्या मैं खराब हो रही हूँ…?

…सिद्धार्थ

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