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22 Jan 2019 · 1 min read

आओ खुशियाँ बाँटें

हज़ारों खिल गये गुल फिर भी यह गुलशन तरसता है
कि लाखों पत्थरों के बीच इक हीरा तरशता है।

सुखाओ फूंक कर इंसानियत तुम उनके छालों को
कि दहशत से न जीने का कोई मक़सद निकलता है।

करोगे तुम जो नेकी तो तुम्हें हासिल वही होगी
भले कामों का भी अंजाम तो अच्छा निकलता है।

बिछाना मखमलें तुम तो सदा ही राह में उनकी
कि बिन मांँ बाप के भी क्या तेरा जीवन निखरता है।

सुखाओ प्यार के मरहम से तुम दुखियों के जख़्मों को
कहीं तलवार से भी पैर का कांटा निकलता है।

रंजना माथुर
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
©

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