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10 Dec 2018 · 1 min read

बरसों साथ रह कर भी

बरसो साथ रह कर भी पहचान नही होती।
लबों की हर मुस्कराहट मुस्कान नही होती।

साँस ले रही हैं , बहुत सी लाशे यहाँ
जिन्दा हो कर भी ,जान नही होती।

रेत की तरह ,हर रिशता हाथ से फिसल गया।
ऐसे जैसे मैं कोई इंसान नही होती।

बहुत मिन्नते की,आवाज़ भी दी मैने
लेकिन खुशी हर घर की मेहमान नही होती।

लो संभालो अपने महल,कोठी और कारें
दौलत हर किसी का भगवान नही होती।

घेरे रहता है मुझे तेरी यादों का झुरमट,
इसी लिये कभी तन्हा परेशान नही होती।

डूब जाती हैं कशतियाँ,शांत सागरों में भी
हर जगह,हर पल कुदरत मेहरबान नही होती।

सुरिंदर कौर

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