G28
मेरी ग़ज़लें तुम्हारे लब से जब छूकर निकलते हैं।
बदन भी कांप जाता है, अश्क बाहर निकलते है।
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अंधेरों से उजालों की तरफ हम लौट आएंगे।
उम्मीदों की शुवाएं ज़ुल्म से अक्सर निकलते हैं।
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हमारे दिल में रहते हो मगर कैदी तुम्हारा हूं।
जु़ल्फ़ों की असीरी में सजा़ पाकर निकलते हैं।
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बहुत लाचार होते हैं मगर खुद्दारी की खातिर।
ज़रूरत में ही घर के सब छिपे ज़ेवर निकलते हैं।
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ग़मों का बोझ हो दिल पर,लगे हों होंट पर ताले।
बारिश हो जब आंखों से, तभी बाहर निकलते हैं।
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मोहब्बत मुश्क है खुशबू कहां तक हम छिपाएंगे।
डालकर हाथ हाथों में चलो बाहर निकलते हैं।
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“सगी़र” मुझको सजा देकर उन्हें आखिर मिलेगा क्या।
हम अपनी जान को लेकर,हथेली पर निकलते हैं।