अरूणिमा
अरूणिम अरूणिमा पर काले घन बन छाये
रूकी नहीं आभा वह दूर तक बिखरा गयी
निशा काली-काली भी नहीं कुछ बिगाड़ पायी
माता की सुपूती नया रंग निखरा गयी
काल से दो चार हाथ करने को वह आतुर
लहू गिरे धरती पर ऊफ भी नहीं किया
कोई नहीं पास आस जीने की नहीं छोड़ी
भीतर ही भीतर हृदय पत्थर कर जी लिया
माता विधाता को मन ही मन याद करती
तन पर पचासों उसके लौह चक्र चल गये
देकरके मात काल को भी वह प्रातः तक
गरल बनके जीवन के चले चक्र खल गये
ईश्वर को भाया क्या आखिर यह माया क्या
माना यह सबने विधाता के खेल को
नहीं था अथाह जिसका किसी ने न थाह पाया
बढ़ा दिया मान वह काल गई झेल जोे
ढ़ाल कर के मार थाप समय के नगाड़े पर
देश की यही बेटी पतित पावनी गंगा
शब्द-शब्द कहते हैं सदा कहते रहते हैं
काल के कपाल पर फहरा गयी तिरंगा