_25_मैं यूं ही जिया करता हूं
रफ्ता-रफ्ता दिन गुजारता हूं ,
रोशनी के बिन गुजारता हूं,
रंज नहीं करता हालात का,
हर गम हस कर गुजारता हूं,
जख्मों को छिपाना शौक़ है मेरा,
औरों को मरहम दिया करता हूं,
बहते हुए जख्मों को सिया करता हूं,
मैं यूं ही जिया करता हूं ।।
विरह की तपन झुलसाती है मुझे,
पर जुबां ख़ामोश रहती है,
तोहमतें लगाते हैं सभी मुझ पर,
जो रुक ना सके वह नदी हो तुम,
रह सकते हो तुम किसी के भी बिन,
कहते हैं जज्बातों का ख़ून किया करता हूं,
मैं तो इन लानतों का घूंट पिया करता हूं,
मैं यूं ही जिया करता हूं।।
बढ़ गया जो कभी एक बार ,
पीछे मुड़कर देख नहीं पाता हूं,
जो करे कोई मुझ पर वार,
फिर उसका नेक नहीं कर पाता हूं,
बुलंदियों को हासिल करने की आदत मुझे,
समझौता रिश्तों से नहीं कर पाता हूं,
पर रिश्तों को पुनर्जन्म दिया करता हूं,
मैं यूं ही जिया करता हूं।।
घरौंदा बनाता हूं जब – जब मैं,
तो कहते बिगाड़ दिया तुमने,
उम्मीद की लौ जलाता हूं जब,
तो कहते आग लगा दिया तुमने,
मैं की हुई अच्छाई लगती है बुराई उन्हें,
जुबां से अपनी नश्तर चलाया करते हैं तो,
मैं भी ईंट का जवाब पत्थर से दिया करता हूं,
मैं यूं ही जिया करता हूं ।।