_24_किसे सुनाऊं वेदना इस मन की
आह भरूं अब मै तो हर पल,
ह्रदय हो गया मेरा विव्हल,
दिवस बीतते कहते कल-कल,
अश्रु बहें नयनों से छल-छल,
मिला नहीं अब तक कोई हल,
व्याकुल रहता हूं मैं प्रतिक्षण,
सुंदरता नष्ट हो गईं अब तन की ,
किसे सुनाऊं वेदना इस मन की ?
कुछ ख़्वाब देखे थे मैंने,
रह -रह कर सब टूटते गए,
मोतियों की माला पिरोई थी मैने,
क्षण- क्षण मोती बिखरते गए,
जिन्दगी से कुछ लम्हें चुराए थे मैने,
खो गए कहीं वो सिसकते रह गए ,
दुर्दशा हो गई मेरे तन मन की,
किसे सुनाऊं वेदना इस मन की ?
गैरों से जब कुछ रिश्ते बढ़ाए मैंने,
अपने ही मुझसे खिसकते गए,
ज़ख्म पाए हैं दुनियां से अबतक मैंने,
पर ज़िंदगी को बेहतर समझते गए,
अरमान हैं कि मेरे कम होते नहीं ,
ज़ख्म लगते हैं फिर भी रोते नहीं,
खुश्बू माटी हो गई है गुलशन की,
किसे सुनाऊं वेदना इस मन की ?