_21_आख़िरी पड़ाव
ख़ाक छानता फिरता हूं हर पल,
जाने ये जिन्दगी कहां ले जायेगी,
मेरे बंधुओ में नहीं रहा इतना बल,
जाने कब निर्वाण की छांव मिल पायेगी,
मेरे साथ कब तक होता रहेगा छल,
जाने कब ये अपना परदा हटायेगी,
कब तक चलेगा उसका दांव,
कब मिलेगा मुझे आख़िरी पड़ाव?
बचपन तो बीत गया मस्ती में,
फिरता रहा मैं अनजानी बस्ती में,
करता रहा मैं हसीं ठिठोली,
तीर सी चुभती रही बोली,
जवानी में स्वप्न संजोता रहा,
एक- एक कर सबकुछ खोता रहा,
कब भरेंगे मेरे अंतरमन घाव,
कब मिलेगा मुझे आख़िरी पड़ाव?
नभचर तो विचरता है नभ में,
सिर्फ और सिर्फ दानों की तलाश में,
वो प्राणी तोड़ता है पत्थर तपती धूप में,
ज़ख्म हजारों हैं उसके हांथ में,
भूख मिटाकर उसे राहत मिल जायेगी,
पर मेरे दिल की आग कब बुझ पाएगी,
कब बुझेगा यह जलता अलाव,
कब मिलेगा मुझे आख़िरी पड़ाव?