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9 Jan 2023 · 10 min read

_अशासकीय सहायता प्राप्त माध्यमिक विद्यालयों का ऐतिहासिक विश्लेषण करती एक कथा_

अशासकीय सहायता प्राप्त माध्यमिक विद्यालयों का ऐतिहासिक विश्लेषण करती एक कथा

सहायताकरण 【कहानी】
■■■■■■■■■■■■■■■■■■
मृत्यु शैया पर लेटे हुए रोहित के दादा जी ने बड़े प्यार से उसकी ओर देखा और कहा-” बेटा खुश रहना । परिवार का ध्यान रखना और मेरे बाद भी कोई ऐसा काम न करना कि जिससे समाज में हमारी अर्जित की हुई प्रतिष्ठा धूमिल हो ।”-अंतिम क्षणों की दादाजी की वेदना को रोहित ने महसूस किया । भीतर तक उसे कंपन हो आया। दादाजी जाने-माने समाजसेवी और परोपकारी व्यक्ति रहे हैं -यह विचार करते हुए रोहित ने उन्हें आश्वासन दिया “दादाजी ! आप चिंता न करें । समाज सेवा और परोपकार का जो पथ आपने अंगीकृत किया है ,मैं भी उसी पर चलूंगा ।”
सुनते ही न जाने कहाँ से रोहित के दादाजी के शरीर में अद्भुत शक्ति आ गई । पूरी ताकत के साथ वह बिस्तर पर लेटे हुए से उठ बैठे और आवेश में कहा “समाज सेवा और परोपकार करने की कोई आवश्यकता नहीं है । वह सब करके मैं बहुत कुछ भुगत चुका हूं ।” रोहित की समझ में ज्यादा कुछ नहीं आया लेकिन वह चुप रहा।
दादाजी ने रोहित को अब धीरे-धीरे शांत होते हुए समझाना शुरू किया “समाज सेवा और परोपकार का अब जमाना नहीं रहा । कुछ भी करने से पहले परिस्थितियों का आकलन करो और जो ताकतें चारों ओर तुम्हारे विद्यमान हैं, उनकी मनोवृत्ति तथा दिशा को पहचान कर ही कदम बढ़ाओ। समाज सेवा और परोपकार का जोश मुझ पर भी बहुत ज्यादा चढ़ा हुआ था ।”
” पूरा किस्सा सुनना चाहोगे ? ” दादाजी ने रोहित से पूछा तो रोहित ने गहरी उत्सुकता के साथ हामी भर दी । वास्तव में रोहित का लंबा समय घर से बाहर रहकर पढ़ाई में बीता था । पढ़ने के बाद वह इंग्लैंड चला गया और वहां से लंबा समय व्यतीत करके अब भारत आया है । इस बीच दादाजी ने किसी भी प्रकार से उसकी पढ़ाई और नौकरी में व्यवधान उत्पन्न नहीं किया । भारत में जो परिस्थितियां दादाजी के सामने रही होंगी ,उनसे रोहित अनभिज्ञ था।
दादाजी ने कहना शुरू किया “1947 में जब हमारा देश आजाद हुआ ,समय मैं नवयुवक था । पुरखों की बड़ी-बड़ी जमींदारियाँ और जमीन थीं। अपार धन-संपत्ति थी लेकिन मुझ पर तो देश भक्ति का ज्वार चढ़ा हुआ था । आजादी के अगले ही साल मैंने एक इंटर कॉलेज खोलने की मन में ठान ली। कॉलेज खोलने का काम पूरी तरह समाज-सेवा और परोपकार का काम था । कक्षा छह से मैंने विद्यालय शुरू किया और एक-एक साल प्रगति की सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ कुछ साल में ही हमारा विद्यालय इंटर कॉलेज हो गया । हमने अपनी तमाम जमीनें विद्यालय के नाम दान कर दीं ताकि हमेशा के लिए यह एक परोपकार के सुंदर अभियान के रूप में चलता रहे । इसमें एक प्रकार की आत्म-संतुष्टि थी । क्योंकि आजादी की लड़ाई में तो हम जेल नहीं गए लेकिन आजाद भारत को नए सिरे से निर्मित करने के कार्य में हम पीछे नहीं रहना चाहते थे । राष्ट्र निर्माण का यज्ञ नए संविधान की रचना के साथ शुरू हो चुका था और उधर इंटरमीडिएट कॉलेज के रूप में हमारा सेवा कार्य भी जोर शोर से चल रहा था। सुबह देखी न शाम ,न दिन देखा न रात । सच पूछो तो हम अपनी हैसियत ,आमदनी और सब प्रकार की सीमाओं को भूल गए थे । एक जुनून हमारे ऊपर विद्यालय को आगे बढ़ाने का सवार था । सरकार के मंत्री जब हमारे विद्यालय में आते थे तो बहुत प्रसन्न होते थे और कहते थे कि आप वास्तव में हमारा काम कर रहे हैं और आप के माध्यम से देश की बहुत अच्छी सेवा विद्यालय की स्थापना और संचालन के द्वारा की जा रही है । शिक्षा विभाग के अधिकारी भी हमारे कार्य को सम्मान की दृष्टि से देखते थे । जब भी हम उन्हें अपने विद्यालय में मुख्य अतिथि के रुप में आमंत्रित करते थे तो वह कहते थे कि बाबूजी ! आपके विद्यालय हमारे सरकारी विद्यालयों की तुलना में चार गुना आगे चल रहे हैं । इसका श्रेय आपके सुचारू संचालन को जाता है। एक विभागीय अधिकारी ने तो मुझे इस बात के लिए भी निमंत्रित कर डाला था कि आप महीने में एक-दो दिन हमारे सरकारी इंटरमीडिएट कॉलेजों में भ्रमण करके उनका मार्गदर्शन कर सकें ताकि वह भी आप ही के समान अनुशासित और उच्च गुणवत्ता से युक्त संस्थान बन सकें। ”
“अरे वाह दादाजी ! क्या सचमुच आपके द्वारा स्थापित इंटरमीडिएट कॉलेज इतना प्रतिष्ठित और लोकप्रिय था ?”-रोहित में दादाजी से जब यह प्रश्न किया तो दादाजी की आंखों में आंसू आ गए। बोले -“तुम आज की स्थिति देख रहे हो ,लेकिन आजादी के बाद के पहले दशक में हमारे द्वारा स्थापित इंटर कॉलेज की पूरे जिले में तूती बोलती थी। क्या सरकारी अधिकारी, क्या व्यापारी, क्या डॉक्टर और इंजीनियर- वकील सब की पहली पसंद अपने बच्चों को हमारे विद्यालय में प्रवेश दिलाने की रहती थी । आखिर क्यों न होती । मेरा पूरा ध्यान विद्यालय में अनुशासन पर रहता था । अनुशासनहीनता मुझे स्वीकार नहीं थी । इसका परिणाम यह निकला कि हमारे विद्यालय में उच्च गुणवत्ता स्थापित हो गई । जब अध्यापक पढ़ाएंगे और विद्यार्थी पढ़ेंगे तो परिणाम अच्छा ही निकलेगा । आज की तरह यह स्थिति नहीं थी कि किसी कक्षा में जाओ तो आधे बच्चे कक्षा से अनुपस्थित मिलेंगे । तब शत-प्रतिशत उपस्थिति अनिवार्य होती थी । कोई बच्चा अगर कॉलेज नहीं आया है तो उसकी जांच-पड़ताल की जाती थी । अभिभावक से संपर्क किया जाता था और या तो बच्चे को अनुशासन में रहना होगा या फिर विद्यालय छोड़ कर जाना होगा । बिना गणवेश के कोई बच्चा विद्यालय में नहीं आ सकता था । गणवेश तो बहुत दूर की बात है, बिना प्रेस किए हुए कपड़े पहन कर आने पर हम सख्ती करते थे ।
“पढ़ाई को आपने किस प्रकार से अपने विद्यालय में स्थापित किया ? सुना है पहले के समय में प्रदेश की मेरिट लिस्ट में भी आपके विद्यालय के विद्यार्थियों के नाम आते थे ?”
” यही बात तो मैं बताना चाहता हूं तुम्हें रोहित ! विद्यालय एक दिन में नहीं बना। इसके लिए बड़ी मेहनत ,त्याग और तपस्या रही। हमारा पूरा जोर पढ़ाई पर रहता था । हर विषय के अच्छे से अच्छे अध्यापक का इंटरव्यू लेकर हम उसको नियुक्त करते थे। कभी कोई पद खाली हो जाता था तो आनन-फानन में तुरंत भरा जाता था । फीस से जितनी धनराशि आती थी ,उससे ही कालेज के खर्चे चलते थे । कई बार शुरू के वर्षों में तो फीस कम आती थी और साल के अंत में कॉलेज का खर्चा कहीं ज्यादा हो जाता था । लेकिन विद्यालय चलाना और अच्छी तरह से चलाना हमारा उत्साह था । हम इसके माध्यम से देश की सेवा का कार्य कर रहे थे ।”
“लेकिन एक बात समझ में नहीं आती दादाजी ! कि जब आपका कॉलेज आजादी के अगले वर्ष से इतना अच्छा स्थापित हो गया और भली प्रकार चलने लगा तो फिर गतिरोध कहां पैदा हुआ ?”- यह रोहित की जिज्ञासा थी ।
“1971 में सरकार ने हमारे विद्यालय का सहायताकरण किया । इसके बाद बहुत सी समस्याएं शुरू होती चली गईं।”
” सहायताकरण का अर्थ अध्यापकों और कर्मचारियों को सरकारी खजाने से वेतन देने से ही तो है दादा जी ? इससे समस्याएं कैसे पैदा हुईं ?”- रोहित ने दादा जी से प्रश्न किया ।
“तुम्हारा प्रश्न बिल्कुल सही है । इसे गंभीरता से समझने की आवश्यकता है। समस्या विद्यालय के सहायताकरण से नहीं हुई । सहायताकरण तो अपने आप में एक बहुत महान कार्य था। जिस दिन हमने सुना कि अब प्रदेश में सारे इंटर कॉलेजों का सहायताकरण सरकार के द्वारा हो जाएगा, हमें बेहद खुशी हुई । मन में एक संतुष्टि का भाव आया और लगा कि सरकार ने अध्यापकों और कर्मचारियों को वेतन देने का निर्णय करके हमारे ऊपर बड़ा भारी उपकार किया है । हमने सरकार को धन्यवाद दिए और कहा कि आपके इस क्रांतिकारी कदम से हम सबके शिक्षा के क्षेत्र में समाजसेवी प्रयासों को बहुत बल मिलेगा। आजादी के बाद से हम दो दशकों से वेतन की समस्या से जूझ रहे थे ,अब जब सरकार वेतन देगी तो वेतन की समस्या का जड़ से निदान हो पाएगा ।”
“सरकार द्वारा दिया जाने वाला वेतन तो आपके द्वारा दिए जाने वाले वेतन से ज्यादा होता होगा दादाजी ? “-रोहित ने प्रश्न किया ।
“बिल्कुल यही बात है ।”-दादाजी ने उत्तर दिया “सहायताकरण का यही तो लाभ था। सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि हमें अध्यापकों को दिया जाने वाला वेतनमान उच्च होने के कारण अच्छी प्रतिभाएं अध्यापक के रूप में उपलब्ध होने लगीं। हर व्यक्ति उस नौकरी में जाना चाहता है ,जहां अच्छा वेतन हो । अब जब प्राइवेट इंटरमीडिएट कॉलेजों में सरकारी सहायता के कारण अच्छा वेतनमान मिलने लगा तो अच्छी प्रतिभाएं इस क्षेत्र में आकृष्ट होकर अध्यापक बनने की दिशा में आगे बढ़ीं। विद्यालय दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति करेगा, यह सोच कर हम लोग आत्मविश्वास से भरे हुए थे । लेकिन यह सुखद अनुभूति ज्यादा समय तक नहीं दिखी । ”
“क्यों ऐसा क्या हो गया ? अभी तो आप कह रहे थे कि सहायताकरण अच्छी बात थी । फिर क्या कोई परेशानी आने लगी ?”- रोहित ने इस बिंदु पर दादाजी के सामने अपना सवाल रख दिया ।
दादाजी ने मुस्कुराते हुए कहा “सचमुच उसके बाद वह हुआ ,जो हम में से किसी ने कभी सोचा भी न था । सरकारी पैसा विद्यालय को वेतन के रूप में सहायता-राशि बनकर प्राप्त हुआ । बस कुछ ही समय में नेताओं और अफसरों की नीयत और नजरें बदल गईं। कल तक जो हमारे प्रयासों को सम्मान की दृष्टि से देखते थे ,अब हमारे प्रति असहिष्णु होने लगे । जो नेता और अधिकारीगण हमारे योगदान की सराहना करते नहीं थकते थे ,अब उन्हें हमारी प्रबंध समितियों में दोष ही दोष नजर आने लगे। बात दरअसल यह थी कि जब एक बार सरकार ने हमारे विद्यालयों को पैसा देना शुरू कर दिया ,तब नेताओं और अधिकारियों के मन में यह प्रलोभन भी जागने लगा कि अब क्यों न इन प्रबंध समितियों से इनका विद्यालय छीन लिया जाए ?”
“हे भगवान ! यह तो बहुत बड़ी दुष्टता से भरी हुई सोच है । क्या सचमुच आपके विद्यालय को हड़पने के लिए सरकार और अधिकारी प्रयत्नशील होने लगे ? आपने इतनी मेहनत करके विद्यालय खोला । उसके लिए अपनी जमीन दान में दे दी । तमाम पैसा अपने पास से खर्च किया । तन मन धन अर्पित कर दिया । क्या इसका परिणाम यही था कि आपके विद्यालय को हड़पने की साजिश सरकार और अधिकारियों ने मिलकर बनानी शुरू कर दी ! “-अब रोहित के स्वर में भी आक्रोश देखने लगा था ।
दादा जी ने हँसते हुए रोहित से कहा “बेटा ! जब मैंने ही विद्यालय खोला और मेरे विद्यालय को ही सरकार ने हड़पना शुरू कर दिया ,तब भी मैं क्रोधित नहीं हुआ । तब तुम क्रोधित क्यों हो रहे हो ? धैर्य रखो और गंभीरता से सारी परिस्थितियों को समझो।”
” लेकिन दादा जी ! यह तो गुस्सा होने की ही बात है । क्या सरकार को यह शोभा देता है कि वह समाजसेवा की भावना से खोले गए विद्यालयों को हड़प ले और सामाजिकता के विचार पर ही एक प्रश्न चिन्ह लगा दे ? अगर ऐसे किसी के सामाजिक प्रयासों को सरकार और उनका तंत्र मिलकर हड़पने लगेंगे तब तो कोई व्यक्ति कभी भी कोई सामाजिक कार्य शुरू नहीं करेगा ?”
“बस बेटा ! यही वह सीख है जो मैं तुम्हें देना चाहता हूं । परिस्थितियों को गंभीरता से समझो ,विचार करो और भविष्य में कोई भी अच्छा कार्य शुरू करने से पहले सौ बार सोचो । सरकार की नियत बुरी है। नौकरशाही मनमाने तरीके से अपना शिकंजा हर काम में कसना चाहती है । उसके लिए समाज सेवा और परोपकार जैसे शब्द निरर्थक हो चुके हैं । “-दादाजी की आंखों में यह सब बताते हुए हल्का गीलापन आने लगा था । रोहित का हृदय भी द्रवित हो गया।
” दादाजी ! तो क्या समाज सेवा और परोपकार केवल शब्दकोश के ही शब्द बन कर रह जाएंगे ? क्या हम नितांत स्वार्थी जीवन बिताएं और अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन न करें ?”-रोहित के स्वर में अभी भी आक्रोश था । दादाजी इस सवाल का जवाब देने से पहले काफी देर तक सोचते रहे । इससे पहले कि वह कुछ कहते ,रोहित ने कहा “सरकार और उसका तंत्र जो कुछ कर रहा है ,वह सरासर गलत है। किसी संस्था को सरकारी सहायता का अर्थ यह नहीं होना चाहिए कि सरकारी नौकरशाह उस पर कब्जा कर लें और संस्था के सृजनकर्ताओं को दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर हटा दिया जाए । यह तो एक बहुत बड़ा विश्वासघात है । मैं इसे छल कहूंगा । इन सबके बाद भला कौन बिना सोचे समझे आप की भांति समाज सेवा और परोपकार के लिए काम करेगा ?
“दादा जी ने अब रोहित के सिर पर हाथ फेरा और कहा ” बेटा ! इसी का नाम कलयुग है । आजादी का जो माहौल था और उस समय जो त्याग भावना का जीवन-मूल्य विद्यमान था ,वह दो-तीन दशकों से ज्यादा नहीं चला । सर्वत्र धन-संपत्ति और अधिकारों की लूट का साम्राज्य स्थापित हो गया । जितना शोषण जनता का गोरे अंग्रेजों द्वारा किया जाता था , उसी का अनुसरण काले अंग्रेजों ने करना शुरू कर दिया । काले अंग्रेज अर्थात हमारे ही बंधु-बांधव भ्रष्टाचार तथा रिश्वतखोरी में संलग्न हो गए । हमारी प्रबंध समितियों से अधिकार छीने जाने लगे और वह अधिकार जिनके पास गया ,उन्होंने उस अधिकार का भरपूर दुरुपयोग करने में कोई कमी नहीं रखी । मनुष्य परिस्थितियों को विवश होकर देखता है ,लेकिन उनसे सबक भी लेता है । आज तुम पढ़ लिख कर इंग्लैंड से आए हो। तुम्हारे पिताजी इस दुनिया में नहीं हैं अन्यथा वह तुम्हें हमारे संघर्षों का कुछ और परिचय भी देते । लेकिन फिर भी बस बहुत खेद के साथ यही कहना पड़ता है कि समाजसेवा और परोपकार का हमारा अनुभव अच्छा नहीं रहा ।”-दादाजी अपनी कहानी सुना कर चुप हो गए । लेकिन रोहित के मन में हजारों सवाल उमड़ने-घुमड़ने लगे और फिर उसे चैन नहीं मिला ।
■■■■■■■■■■■■■■■■ ■■
लेखक :रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451

Language: Hindi
106 Views
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