51- सुहाना
51- सुहाना
मुझको सुहाना सफर चाहिये।
इक सुंदर सा प्रिय हमसफ़र चाहिये।।
दिलदार का आगमन चाहिये।
मौज-मस्ती मेँ डूबा जिगर चाहिये।।
बस्ती सुहानी में घर चाहिये।
मुझे एक पावन नगर चाहिये।।
जहाँ जाऊँ देखूँ सुघर सा नजारा।
मुझे प्रिय लुभावन डगर चाहिये।।
नजरों में सबकी सलोनी अदा हो।
मनोहर सा मंजर सदर चाहिये।।
सुंदर हो उत्तम हो पावन जमीं हो।
यही इक मनोरम मगर चाहिये।।
हों हमसफ़र प्रिय सुहाना सरासर।
साथी पथिक सब सुघर चाहिये।।
थमे मुश्किलों का यह ताता पुराना।
सहज जिंदगी का उमर चाहिये।।
52- संक्षिप्त मार्ग (चौपाई)
संक्षेपण का पंथ निराला।
बुद्धिमान का है यह प्याला।।
लंबी-चौड़ी बात न करना।
थोड़े में ही सब कुछ कहना।।
समय और श्रम भी बच जाता।
थोड़े में सब कुछ हो जाता।।
ज्यादा माथा-पच्ची मत कर।
कम में ही अच्छी बातें कर।।
थोड़े में ही काम चलाओ।
जल्दी मंजिल तक चल जाओ।।
बनना सूक्ष्म परम सुखदायी।
अति विस्तार अधिक दुःखदायी।।
नित बौद्धिक विस्तार चाहिये।
प्रिय आत्मिक व्यवहार चाहिये।।
एक जगह से हो शुभ चिंतन।
मधु भावों का हो अभिनंदन।।
सकल लोक है संक्षेपण में।
मधुर आम्र फल संप्रेषण में।।
है संक्षिप्त पंथ अंवेषण।
करो व्यवस्थित सदा गवेषण।।
बुद्धिमान संक्षिप्त पथिक है।
सहज न्यूनतम भाव रसिक है।।
सुंदर फलप्रद वैज्ञानिक है।
अत्युत्तम वह मणि-माणिक है।।
53- प्रीति बिना… (चौपाई)
प्रीति बिना रसहीन जिंदगी।
हिय से किस की करूँ बंदगी।।
प्रीति बिना यह पागल मन है।
दीन-हीन यह मेरा तन है।।
प्रीति गयी यह लोक छोड़कर।
नाते-रिश्ते सभी तोड़कर।।
उसको यहाँ नहीं अब आना।
बहुत कठिन है उसको पाना।।
क्यों आयेगी कमी उसे क्या?
उसको लोगों ने समझा क्या??
बहुत दिनों की भूखी-प्यासी।
बहुत काल से वह उपवासी।।
सहज प्रीति को किसने जाना?
इसे अधूरे मन से माना।
बेपरवाह सभी इसके प्रति।
समझ के बाहर थी इसकी गति।।
देख जगत की यह नादनी।
हुई प्रीति तब देव दीवानी।।
अब वह जग में क्यों आयेगी?
क्या दुनिया इसको पायेगी??
प्रीति रसिक को प्रीति मिलेगी।
स्वयं प्रीति की भक्ति मिलेगी।।
प्रीति सज्जनों की दीवानी।
सज्जन संग रहत यह रानी।।
सज्जन में ही देवालय है।
देवालय में स्नेहालय है।।
स्नेहालय में प्रीति प्रतिम है।
मधुमय प्रीति सहज अनुपम है।।
प्रीति मिलेगी मन कहता है।
प्रीति वेश में दिल रहता है।।
मुझे त्याग कर कहीं न जाना।
प्रीति मनोरम!उर में आना ।।
54- द्वंद्व अनवरत चला करेगा
(सजल)
सत्य-झूठ में मचा रहेगा।
द्वंद्व निरन्तर चला करेगा।।
पाण्डव-कौरव युद्ध अनवरत।
इस भूतल पर चला करेगा।।
अहंकार का बना दीवाना।
दुर्योधन रण डटा रहेगा।।
ललकारेगा सदा धर्म को।
पापी बनकर कटा रहेगा।।
सत्य -अहिंसा -प्रेम विरोधी ।
काट-मार में लगा रहेगा।।
बस इक इंच भूमि की खातिर।
दुश्मन बनकर चला करेगा।।
नहीं जहाँ संतोष वृत्ति है।
दुर्योधन नित चढ़ा करेगा।।
पैर में घुँघरू बाँध कटीला ।
सच का सीना दरा करेगा।
जर-जोडू-जमीन को लेकर।
नरक कुण्ड में गिरा करेगा।।
खूनी होली सदा सुहाती।
रक्तिम अभिनय किया करेगा।।
मानव धर्म विरोधी दानव।
दुर्योधन बन चला करेगा।।
यही द्वंद्व बन आता जग में।
सच-पाण्डव से बड़ा बनेगा।।
मारा जाता फिर जी जाता ।
रक्त-बीज बन जिया करेगा।।
त्रेता-द्वापर-कलियुग में यह।
जहर नदी बन बहा करेगा।।
पतनोन्मुख हैं दुष्ट वृतियाँ।
दुर्योधन नित मरा करेगा।।
विजयी होंगे केवल पाण्डव।
द्वंद्व अनवरत चला करेगा।
55- माँ सरस्वती जी की वंदना
(चौपाई)
माँ ममता की खान अमृता।
महा ज्ञानमय दिव्य अस्मिता।।
मन्त्रवती अति प्रिया मंत्रणा।
प्रिय संगीता कर में वीणा।।
सघन विज्ञ विद्या शुभ कविता।
मधुर प्रवाहयुक्त शिव सरिता।।
ध्यान मान अनुमान अनंता।
अमी अमर अज श्री भगवंता।।
घन घनघोर वृष्टि सृष्टि हो।
दयावंत भगवंत दृष्टि हो।।
महा नायिका प्रेम अगाधा।
शरण तुम्हारे नहिं कुछ बाधा।।
बैठी हंस गीत गाती हो।
भव भय हरण हेतु आती हो।।
जग को पावन तुम करती हो।
सब में संस्कार भरती हो।।
आओ माँ वरदानी बनकर।
खुश कर माँश्री विद्या दे कर।।
हिय में सब के प्यार भरो माँ।
जगती का उद्धार करो माँ।।
56- विरह (चौपाई)
नहीं सहा जाता वियोग है।
काला ज्वर यह मनोरोग है ।।
विरही कैसे दुःख सह पाये?
नहीं सूझता किधर को जाये??
विरह काल अति दुःखदायी है।
दुःख की बाढ़ चढ़ी आयी है।।
सूख रहा सारा तन-मन है।
दरक रहा सारा यौवन है ।।
मन में ग्लानि बुद्धि व्याकुल है ।
रक्त सूखता अति आकुल है।।
टूट गयी खुशियों की माला।
जीवन लगता विष का प्याला।।
विरह- वियोग बहुत तड़पाता।
बहुत विषैला सर्प सताता।।
छू छू कर के भय दिखलाता।
अपना ध्वज नियमित फहराता।।
जीवन में है घोर निराशा।
दिखती नहीं पास में आशा।।
विरह-अग्नि में सब जल जाता।
विरही को कुछ नहीं सुहाता।।
जाड़ा देता घोर तपिश है।
कभी न दिखता कहीं कशिश है।।
अंधकारमय सारा जीवन।
उजड़ा विखरा सूना उपवन।।
तप्त हृदय में ज्वाला-मुख है।
नख से शिख तक दुःख ही दुःख है।।
बहुत कठिन वियोग को सहना।
अच्छा होगा प्राण छोड़ना।।
57-गुलाब का फूल (सजल)
प्रिय!गुलाब का फूल लीजिये।
मादक सी मुस्कान दीजिये।।
चुना इसे काँटों से लड़ कर।
यह हार्दिक उपहार लीजिये।।
इस में प्रियतम की खुशबू है।
प्यार भरा इजहार लीजिये।।
मसल न देना इसको प्यारे।
इस गुलाब से प्यार कीजिये।
इसे नहीं हल्के में लेना।
इसको दिल में डाल लीजिये।।
आज गुलाब दिवस की महफ़िल।
रंग गुलाबी धार दीजिये।।
ले गुलाब का पुष्प नृत्य कर।
सूँघ-सूँघ मनहार कीजिये।।
दिल में इसे सजा कर रखना।
विस्तर पर श्रृंगार कीजिये।।
हाथों में ले इसको चूमो।
चुंबन को स्वीकार कीजिये।।
यह उपहार प्रेम का सागर।
धारण कर जग पार कीजिये।।
सत्कर्मों से यह मिलता है।
किस्मत को ललकार दीजिये।।
58- माँश्री का गुणगान कीजिये
(चौपाई)
माँश्री से अस्तित्व हमारा।
माँ चरणों का रज अति प्यारा।।
माँ की ममता बहुत निराली।
देतीं वही भोग की थाली।।
छप्पन व्यंजन की दाता हैं।
सभी तरह से सुखदाता हैं।।
पल-पल ध्यान दिया करती हैं।
कष्ट हरण करती रहती हैं।।
माँ का हृदय विशाल हिमालय।
माँ ही सचमुच में देवालय।।
परम पवित्र हृदय माता का ।
नित वंदन कर सुखदाता का।।
माँ ही रक्षक प्रिय संरक्षक।
माँ शिशुओं की मौलिक शिक्षक।।
माँ के भावों को पहचानो।
केवल माताश्री को जानो।।
भूखी-प्यासी माँ रह जाती।
पर बेटे को दूध पिलाती।।
सभी तरह से सेवा करती।
वह हर स्थिति में खुश रहती।।
लोरी गा कर नींद सुलाती।
गीले में ही खुद सो जाती।।
अति प्रसन्न माँ की ममता है।
माँ में कितनी श्रम-क्षमता है??
अद्वितीय माँ की महिमा है।
वही परम प्रिय जग-गरिमा है ।।
बालक के प्रति सहज समर्पित।
वंदनीय माँ को सब अर्पित।।
59- सहजता (चौपाई)
स्वाभाविक व्यवहार सरस है ।
सदा बनावट अति नीरस है।।
सहज भाव का करो समर्थन।
इसी भाव का हो अभिनंदन।।
जहाँ सहजता वहीं दिव्यता।
सहज विचारों में मानवता।।
नहीं बनावट में सुख असली।
निर्मित करती दुनिया नकली।।
जो जीता है मौलिकता में।
श्रद्धा रखता नैतिकता में।।
असहज मानव सदा उपेक्षित।
सहज मनुज ही भव्य अपेक्षित।।
सहज मनुज का सादा जीवन।
रचता प्रति क्षण प्रिय जग-उपवन।।
उच्च विचारों का संयोजक।
सुंदर मन का नित उद्घोषक।।
सदा सहजता में शुचिता है।
नित निसर्ग की सुंदरता है।।
तपोभूमि को निर्मित करती।
देव भूमि में रचती-बसती।।
सहज सरल सुंदर शिवमय सम।
सहज भावना अति प्रिय मधु नम।।
जहाँ सहजता शिवता सभ्या।
वहीं दीखती दिव्या भव्या।।
60- सुघरता (सजल)
दूषित होती आज सुघरता।
लगातार बढ़ रही मलिनता।।
भौतिकता की चकाचौंध से।
गिरती-पड़ती अब सुंदरता।।
सुंदर मन का लोप हो रहा।
मुँह के बल गिरती मानवता।।
दनुज वृत्तियाँ ऊर्ध्वगामिनी।
मानव की घटती नैतिकता।।
सुघर विचार तोड़ते दम हैं।
गन्दे भावों की अतिशयता।।
धन के पीछे भाग रहे सब।
दीख रही है हृदयशून्यता।।
पावन मन का मतलब कुछ नहिं।
धन में बसती सहज धन्यता।।
इश्क़ मोहब्बत प्रेम स्नेह सब।
खोते दिखते अब निर्छलता।।
सुघर विचारों का संकट है।
लुप्त हो रही दिव्य सुघरता।।
61- जल्दी में….चौपाई)
जल्दी में गलती मत करना।
सोच-समझकर आगे बढ़ना।।
गिरते-भहराते मत चलना।
सहज निरन्तर बढ़ते रहना।।
पहले सोचो क्या करना है?
अगला कदम कहाँ रखना है??
चलते रहना निश्चित हो कर।
चलो निरन्तर पैर सजा कर ।।
कदम-कदम पर प्रेम कहानी।
लिखते जाना प्रीति सुहानी।।
लिख-लिख-लिख कर चलते रहना।
प्रीति गीत को गाते चलना।।
सदा प्रीति को ले कर चलना।
सीने में चिपकाये रखना।
एक निमिष के लिये न छोड़ो।
प्रीति मीत से नाता जोड़ो।।
प्रीति संग से राह सरल है।
इसके बिन हर सैर गरल है।।
मचले प्रीति चरम यौवन में।
सफर लगे अमृत जीवन में।।
62- नमन करो माँ सरस्वती को
(चौपाई)
नमन करो नित ध्यान लगाओ।
माँ चरणों में शीश झुकाओ।।
माँ से नेह लगाये रहना।
दिल में प्रीति जगाये रखना।।
जो माँ का करता वंदन है।
बन जाता शीतल चंदन है ।।
माँ का अनुदिन करो प्रार्थना।
पूरी होगी सकल कामना।।
बैठ हंस पर माँ आयेंगी।
ज्ञान मनोरम बतलायेंगी।।
सद्विवेक की राह दिखेगी।
लौकिक तृष्णा-चाह मिटेगी।।
माँ के कर में पुस्तक होगी।
झंकृत वीणा दस्तक देगी।।
श्वेत वस्त्र में अति सात्विकता।
मिटा करेगी नित नास्तिकता।।
माँ को उर-मंदिर में लाओ।
उनके चरणों में रह गाओ।।
पढ़ना -लिखना सीख निरन्तर।
बनते जाओ ज्ञान धुरंधर।।
माँ का मधुर वचन सुनना है।
माँ के संग सदा चलना है।।
माँ का नियमित अभिवादन हो।
शुभ भावों का संपादन हो।।
माँ का आशीर्वाद चाहिये।
अति पावन संवाद चाहिये।।
पुण्य वृत्ति का रहे जागरण।
माँ की शुचिता का पारायण।।
63- कुण्डलिया
मोहक बनने के लिये, कर उर का विस्तार।
अति संवेदनशील हो, कर दुःख का उपचार।।
कर दुःख का उपचार,सभी को ढाढ़स देना।
मीठी वाणी बोल, हृदय की पीड़ा हरना।।
कह मिश्रा कविराय,बने जो दुःख का मोचक।
वही विश्व का मीत,धरा पर दिखता मोहक।।
64- सुहानी याद (चौपाई)
तुम्ही हमारी याद सुहानी।
भोली-भाली किन्तु सयानी।।
सज-धज कर बैठी रहती हो।
प्रति पल कुछ ढूढ़ा करती हो।।
कभी-कभी खो जाया करती।
कभी होश में आया करती।।
कभी चैन से सो जाती हो।
उठ हो खड़ी कभी गाती हो।।
स्मृतियाँ बन छायी रहती हो।
कभी निकट आया करती हो।।
कभी दूर से ही वतियाती।
आँखों से ओझल हो जाती।।
नदी पहाड़ों और वनों सा।
खेत और खलिहान घनों सा।।
नदी सिंधु अरु झरना बनकर।
पेड़ फसल अन्नपुर्णा बनकर।।
तुम्हीं सुहानी याद अमर हो।
मन का मादक भाव असर हो।।
तुम्हीं प्रकृति हो बहुत निराली।
तुम बसन्त की प्यारी प्याली।।
है बसन्त ऋतुराज आ गया ।
दिल पर तेरे आज छा गया।।
चुंबन लेकर अब खिल जाओ।
प्रिये प्रकृति!अब खुश हो जाओ।।
तुम्हीं याद फरियाद तुम्हीं हो।
नैसर्गिक सुखवाद तुम्हीं हो।।
तुम बसन्त की प्रियतम रानी।
बनी हुई स्मृति स्मरण लुभानी।।
65- वरदानी माँ सरस्वती हैं
(चौपाई)
माताश्री का धाम अनोखा ।
यहाँ नहीं है कोई धोखा ।।
मंदिर में है हर्ष बरसता।
घण्टा नाद सुघर सा बजता।।
लहराता मंदिर पर ध्वज है।
परम सुगंधित माँ पद-रज है।।
दर्शन हेतु लगी लाइन है ।
अनुशासन पावन फाइन है।।
भोग लगाते भक्त यहाँ हैं।
पैर पकड़ आसक्त यहाँ हैं।।
माँ चरणों को पकड़-पकड़ कर।
माँगा करते सुंदर शुभ वर।।
जग प्रसिद्ध माँ वरदानी हैं।
महा ज्ञानिनी विज्ञानी हैं।।
सबकी रक्षा में रत रहती।
सबको मधु अमृत फल देती।।
जिह्वा पर बैठी सब कहती।
शुभ भाषा में बोला करती।।
बैठ हंस पर ज्ञान सिखाती।
आशीर्वाद बनी घर आती।।
माँ का शुभ वरदान चाहिये।
पावन अमृत ज्ञान चाहिये।।
माँ ही सबकी प्रिय आशा हैं।
भक्तों की नित अभिलाषा हैँ।
66- आ जाओ प्रिय देर न करना
(सजल)
आ जाओ प्रिय!देर न करना।
चल तुरन्त अब कहीं न रुकना।।
मेरे दिल में भाव समंदर।
उमड़ रहा है जल्दी करना।।
जन्मांतर से चले आ रहे।
इस वादे को नहीं तोड़ना।।
दृढ़ प्रतिज्ञता का परिचय दो।
सच्चाई की बाँह पकड़ना।।
मन के भावों को जिंदा रख।
जल्दी-जल्दी निकट पहुँचना।।
सब्र टूटता चला जा रहा।
पाँव बढ़ाते चलते रहना।।
67- धीरे-धीरे कदम बढ़ाओ
(सजल)
धीरे-धीरे कदम बढ़ाओ।
प्रेम सिंधु में खिंचते जाओ।।
इसका देख सुहाना मंजर।
आँखों में बैठाते जाओ।।
यह जन्नत है दिव्य लोक का।
दिल में इसे सजाते जाओ।।
पूजा करना इस मंदिर में।
कर से धूप जलाते जाओ।।
प्रेम नहीं पत्थर की मूरत।
वंदन करो मनाते जाओ।।
खुश रखना नित प्रेम मूर्ति को।
मन को ध्यान दिलाते जाओ।।
सहज भाव से नतमस्तक हो।
अपना शीश झुकाते जाओ।।
है प्रणम्य यह तीन लोक में।
इसका मान बढ़ाते जाओ।।
नियमित क्रमशः बढ़ते रहना।
सहज प्रेम रस पाते जाओ।।
68- कठिन प्रेम की है परिभाषा
(चौपाई)
कठिन प्रेम की है परिभाषा।
अत्याकर्षक आत्मिक आशा।।
यह अति पावन निर्मल धारा।
परम सुखद सात्विक अति प्यारा।।
यह विशुद्ध सुंदर मनभावन।
सत आकाशी पुष्प लुभावन।।
शिशु स्वभाव सा परम शांत है।
नित प्रिय शिव विचार कांत है।।
मूर्खों का यह नहीं विषय है।
चरम भावमय यह रसमय है।।
कौन समझ सकता है इसको?
आत्मविभोर भक्ति हो जिसको।।
महा प्राणमय सर्व शक्ति यह।
सहज भावमय भव्य भक्ति यह।।
चारों तरफ यही फैला है।
नहीं सुलभ जो मटमैला है।।
सुंदर कोमल सहज सुघर यह।
परम अलौकिक नित्य अमर यह।।
यह सर्वोत्तम हृद सागर है।
पूजनीय दैवी आखर है ।।
69- दिल दीवाना आज हो गया
(चौपाई)
दिल दीवाना आज हो गया।
बहुत बड़ा जांबाज हो गया।
महक सूँघता यह चलता है।
जगह-जगह रुकता बढ़ता है।।
लापरवाहों सा चलता है।
आतुरता में ही रहता है।।
कस्तूरी को ही यह प्रति पल।
ढूँढ़ रहा यह बना चलाचल।।
गिरता उठता चलता फिरता।
पाँवों में छालों से घिरता।।
हार कभी भी नहीं मानता।
एक लक्ष्य को सिर्फ जानता।।
खोजी बनकर थिरक रहा है।
घूम-घूम कर मचल रहा है।।
अपने मन को खोज रहा है।
दिख दीवाना टहल रहा।।
यह आशा का पुंज बना है।
आत्म-काय का कुंज बना है।।
इसको केवल प्रेम चाहिये।
सारे जग का क्षेम चाहिये।।
70- मिश्रा कविराय की कुण्डलिया
धारण करना धर्म को, है अति पावन कर्म।
सत्कर्मों को जानिये, असली मानव धर्म।
असली मानव धर्म, सिखाता मानव बनना ।
मन को करता शुद्ध, बताता जग में रहना।।
कह मिश्रा कविराय, बनो नित सुख का कारण।
सेवाकर्मी भाव, करो मन में नित धारण।।
71- धार्मिक दोहे
मधुर भाव में हो सदा, मानव से संवाद।
कुण्ठा-नद को पार कर, रहो सदा आजाद।।
सबके हित के भाव में, रहना सीखो नित्य।
करना केवल काम वह, जो जग में हो स्तुत्य।।
संगति उत्तम कीजिये, दुर्व्यसनों से मुक्त।
मानववादी कर्म से, सदा रहो संयुक्त।।
नियमित दिनचर्या रहे, करो संयमित कर्म।
पापी मन को नष्ट कर,मत कर कभी अधर्म।।
सबके हित की बात को, करते रह स्वीकार।
दुश्मन की भी हानि को, दिल से कर इंकार।।
सदा राम में मन लगे, राम आचरण जान।
पद चिह्नों पर राम के, चल कर बनो महान।।
आत्मा में विचरण करो, काया साधन जान।
काया से बाहर निकल, आतम को पहचान।।
आत्मा स्वर्णिम स्वर्ग ही, जीवन का है सार।
सबको आतम जान कर, रच आत्मिक संसार।।
72- प्रायश्चित (दोहे)
हो जाये यदि पाप तो, करना पश्चाताप।
पाप मुक्ति का पंथ है, केवल प्रभु का जाप।।
दूषित कर्मों का करो, तुम निश्चित अहसास।
संशोधन के हेतु नित, करते रहो प्रयास।।
जानबूझ कर मत करो, कोई गन्दा काम।
हो जाये गलती अगर,भजो राम का नाम।।
माफी माँगो ईश से,पछतावा कर रोज।
गंगा जल से स्नान कर, दो ब्राह्मण को भोज।।
खुद को देना दण्ड ही, पश्चाताप विशेष।
दुःखमय मन से प्रकट कर, खुद अपने पर रोष।।
विकृत कर्मों का करो, नित नियमित उपचार।
गन्दे मन के भाव का, करते रहो सुधार।।
73- गुरुदेव (दोहे)
गुरु ही देव स्वरूप हैं, स्वयं ज्ञान भगवान।
जो गुरु को है पूजता, बनता सदा महान।।
गुरु की आज्ञा मान कर, जो करता हर काम।
आज्ञाकारी शिष्य ही, रहता गुरु हिय धाम।।
करता रहता रात-दिन, जो गुरु का अपमान।
उसके निकट कभी नहीं, जाता कुछ भी ज्ञान।।
श्री गुरु चरण सरोज रज, ही अति शुचिर विभूति।
रख कर अपने शीश पर, कर पावन अनुभूति।।
जिस को गुरु सर्वोच्च हैं, वह बनता विद्वान।
गुरु द्रोही के भाग्य में, सिर्फ एक अपमान।।
श्री गुरु मुख की बात को, समझ ब्रह्म का वाक्य।
गुरु के सारे वचन प्रिय, मोहक दिव्य अकाट्य।।
करना गुरु को नित नमन, विनती बारंबार।
गुरु की महिमा गंग जिमि, प्रबला अपरंपार।।
गुरु ही सात्विक ज्ञान का, बतलाते हैं मर्म।
उत्प्रेरक बनकर सदा, सिखलाते सद्धर्म।।
74- मिश्रा कविराय की कुण्डलिया
पावन हिय को साजिये,रहे विश्व के साथ।
आशा दे करता रहे,जग को सदा सनाथ।।
जग को सदा सनाथ, रहे संसार सुखारी।
रहें सभी खुशहाल, दिखे ना जगत दुखारी।।
कह मिश्रा कविराय, मनुज में आये सावन।
दिल हो सहज उदार, करुण अति पावन।।
75- उदात्त (चौपाई)
जो उदात्त वह अति प्रिय मानव।
महा पुरुष महान नित अभिनव।।
आदरणीय श्रेष्ठ अति सज्जन।
हो उदात्त का नित अभिनंदन।।
परम कृपालु दयालु महाजन।
दिव्य भावमय सत्य लुभावन।।
सत्यनिष्ठ सन्त शिवयश सम।
सत्यान्वेषी सहज शांत नम।।
अति नमनीय प्रणम्य प्रभाकर।
अमृत भाव विचार सुधाकर।।
देव महा नायक समाज का।
परम शुभ्र साधक स्वराज का।।
अति उदारवादी संतोषी।
त्यागरती विराग निर्दोषी।।
सबके प्रति समता-ममतामय।
जग कल्याणी सरस प्रेममय।।
76- धर्म कार्य (चौपाई)
धर्म कर्म को सदा सराहो।
रहो त्यागरत स्वेद बहाओ।।
सब के हेतु बनो अनुरागी।
शुभ कर्मों में बन सहभागी।।
शुभ भावों का हो संपादन।
अच्छे मन का हो अभिवादन।।
मधुर क्रिया का दीप जलाओ।
शुभद कामनामय बन जाओ।।
सुंदर नित्य कर्म संगम बन।
सच्चा सेवक प्रिय जंगम बन।।
प्रेम रंग का हो निष्पादन।
मन-समता का हो प्रतिपादन।।
मन वाणी अरु कर्म धर्ममय।
सारा जीवन बने नम्रमय।।
देखो सब मानववादी बन।
हो सात्विक रंगीन सहज मन।।
अपने से उठ अपने में रह।
अंतस की गंगा में जा बह।।
निःस्वारथ का डंका पीटो।
लंकापति की लंका लूटो।।
खुद ही खुद में अस्तिमान बन।
प्राणि मात्र का स्वाभिमान बन।।
मत छोड़ो पावन कर्मों को।
नित अपनाओ शिव धर्मों को।।
77- संवाद (सजल)
चलो आज अब बातचीत हो।
मानव से मानव परिचित हो।।
रहे न कोई यहाँ अकेला।
एक दूसरे को सूचित हो।।
जगत बने यह पूजा का घर।
वंदनीय जग सब पूजित हों।।
गल-गल कर कुण्ठा मिट जाये।
निर्मल मानव मन निर्मित हो।।
एक वाद संवादवाद हो।
वैश्विक भेदभाव पीड़ित हो।।
मृग तृष्णा से दूर चले जा।
केवल सच्चाई जीवित हो।।
दिल में उठें प्रेम की लहरें।
सभी परस्पर प्रति प्रेरित हों।।
घबड़ाया मन अब प्रशांत हो।
नहीं किसी का मन विकृत हो।।
संवादों का चले सिलसिला।
दिल से हर मानव स्वीकृत हो।।
78- मिश्रा कविराय की कुण्डलिया
साहस जीवन मूल्य है, साहस को पहचान।
जिसमें साहस है नहीं, वह है मृतक समान।।
वह है मृतक समान,ग्लानि से मन भर जाता।
रहता सदा निराश, नहीं है कुछ कर पाता।।
कह मिश्रा कविराय, बनो कर्मों का पारस।
कर जीवन खुशहाल, दिखाओ अतुलित साहस।।
79- देखे बिन बेचैनी मन में
(चौपाई)
देखे बिन बेचैनी मन में।
सब सूना लगता जीवन में।।
रहा नहीं जाता है पल भर।
फटती जातीं आँखें दिन भर।।
अति खोया-खोया जीवन है।
उजड़ा लगता दुःखद चमन है।।
कैसे तेरा दर्शन होगा?
हे भगवान!मिलन कब होगा??
आँख फाड़ कर खोज रहा मन।
क्षीण हो रहा यह सारा तन।।
खून-पसीना एक हो रहा।
तेरा दर्शन नहीं हो रहा।।
बूझ गरीबी अब तो आओ।
जल्दी से दीदार कराओ।।
अथवा मुझको मर जाने दो।
इस दुनिया से उठ जाने दो।।
भाग रही जीने की इच्छा।
कितना दोगे मुझ को शिक्षा??
अंतिम श्वांसों में इह लीला।।
दिखता है अब काला-पीला।।
80- चल चलो शिव के प्रिय देश में
(चतुष्पदी)
चल चलो शिव के प्रिय देश में।
भजन कर शिव का हर वेश में।।
शिव हरे कहते थकना नहीं।
मन लगे दिन-रात महेश में।।
शिव सदाशिव का गुणगान कर।
शिवज गंग जले नित स्नान कर।।
बढ़ चलो शिव द्वार पखार पद।
चरण वंदन नित्य पुकार कर।।
शिव हरे प्रिय भाव बना रहे।
सुखद सुंदर सत्य शिवा रहें।।
शिव -शिवा प्रिय का नित जाप हो।
शिव हरे नित अंतःपुर रहें।।
मन लगे शिव में विचरण करे।
मन सदा कल्याणकरण करे।।
मन रहे शिवधाम सदा सहज।
मन स्वयं शिव संग भ्रमण करे।।
81- अहित सोच नहीं
(चतुष्पदी)
अहित सोच नहीं न कदापि कर।
अहित भाव विचार निकाल कर।
खुश रहो दिन-रात प्रसन्न रह।
नित चलो हित भाव विचार कर।।
अहित धर्म नहीं यह पाप है।
अहित काम विवश अभिशाप है।
अहित त्याग चलो सत्पन्थ पर।
हित सहज सुंदर निष्पाप है।।
अहित दानव स्वीकृत राज है।
अहित दूषित संस्कृतिबाज है।
अहित कर मत कर हित साधना।
अहित में न कभी सरताज है।।
अहित को ललकार पछाड़ दो।
अहित का सब खेल विगाड़ दो।
अहित को कुचलो हित जाप कर।
सुभग धर्म ध्वजा अब गाड़ दो।।
82- प्रेममगन चालीसा
दोहा-
प्रेम पंथ पर नित चलो, करो जगत से प्यार।
सकल लोक की वंदना, कर बन सबका यार।।
सब को परिचित मान कर, सब से कर संवाद।
सारा जीवन प्रेम में, नित्य रहे आबाद।।
चौपाई-
प्रेम मगन हो कर अब नाचो।
प्रेम कहानी प्रति पल वाचो।।
प्रेम रंग में डूब नहाओ।
जीवन को रंगीन बनाओ।।
प्रेम करो मस्ताना बनकर।
पी लो प्रेम दीवाना बनकर।।
नहीं प्रेम को पीठ दिखाओ।
सनमुख हो कर शीश झुकाओ।।
प्रेम पंथ को नित अपनाना।
इसी राह को स्वर्ग बनाना।।
चलते जाना प्रेम पथिक बन।
सदा सुहाना सहज रसिक बन।।
मत जाओ गंगा के तीरे।
जा कर देख प्रेम को धीरे।।
सदा प्रेम का अनुभव करना।
स्वयं प्रेम की वर्षा करना।।
आज प्रेम वारिद बन जाओ।
स्वयं बरस कर स्वयं नहाओ।।
बन जाओ तुम गोरा बादल।
लो समेट सबको बन आँचल।।
प्रेम स्वयं उपहार जगत में।
छिपा हुआ है प्रेम स्वगत में।
सदा प्रेम का स्वागत करना।
आवभगत करते नित बढ़ना।।
सदा प्रेम को सम्मानित कर।
दिल से इस को आशान्वित कर।।
दिल न दुखाना कभी प्रेम का।
नित सहलाना जिस्म प्रेम का।।
इसको भीतर ही रहने दो।
नजरों से इस को बचने दो।।
बाहर आने पर नजरें हैं।
सभी जगह दिखते कचरे हैं।।
यह भीतर की वस्तु निराली।
परम सुगन्धित मधुरिम प्याली।।
इसे सँभालो अति कोमल है।
अतिशय पावन प्रिय निर्मल है।।
इसे सजाओ बहुत सँवारो।
बुरी दृष्टि से सतत उबारो।।
बन जाओ तुम प्रेम दूत अब।
प्रेम परिधि में देख विश्व सब।।
दोहा-
प्रेम मात्र ही धर्म है, प्रेम परम भगवान।
सात्विक सुंदर प्रेम ही, रचता प्रिय इंसान।।
83- वीर शहीदों का वंदन हो
पुलवामा के वीर शहीदों,
का प्रति पल अभिनंदन कर।
फूल चढ़ाओ शीश झुकाओ,
बलिदानी का वंदन कर।
अमर शहीदों की बलिवेदी,
राष्ट्रभक्तिका आलय है।
पूजा करना इस वेदी का,
अत्युत्तम देवालय है।
राष्ट्र सुरक्षा सर्वोपरि का,
है जिसने सम्मान किया।
राष्ट्र बचाने की खातिर ही,
दुश्मन को हलकान किया।
उस सपूत का नाम अमर है,
अजर वही अविनाशी है।
भारत का वह दिव्य जिगर है,
सदा प्रणम्य उजासी है।।
उन्हें भूलना सदा कठिन है,
उन शहीद पर गर्व हमें।
नामोच्चारण कर कर उन का,
सदा मनाना पर्व हमें।
श्रद्धांजलि में दुःख की लहरें,
हम सब करते नाज मगर।
वीर शहीदों के मस्तक पर,
स्थायी सुंदर ताज सुघर।
इन्हें नमन कर खुश होता मन,
राष्ट्र गीत को गाना है।
वन्दे मातरम भारत वन्दे,
का सम्मान बढाना है।
जीने का मतलब सिखला कर,
वंदनीय चल जाते हैं।
पद चिह्नों पर इनके चल कर,
हम भी नम हो जाते हैं।
राष्ट्रवाद का बिगुल बजाते,
राष्ट्र प्रेम के नायक हैं।
जन-गण-मन में रच-बस जाते,
राष्ट्रधर्म अधिनायक हैं।
वीर शहीदों के चरणों पर,
पावन पुष्प समर्पित है।
नापाकों को रौंद भगाने,
हेतु स्वयं अभिकल्पित हैं।।
84- धर्म ध्वजा (चौपाई)
धर्म ध्वजा लहराते रहना।
सुंदर शिविर चलाते रहना।।
सेवा करना हर प्राणी का।
परिचय देना मधु वाणी का।।
सुंदर रूप सलोना धर कर।
मानववादी राह पकड़ कर।।
चलते रहना धर्म पंथ पर।
मधु भावों में खुद बह -बह कर।।
शांति पाठ को करते रहना।
कलह-द्वेष से बचते चलना।।
करो सफाई खुद की सब की।
निर्मल मनोवृत्ति कर जग की।।
मानव बन कर चलें सभी जन।
बन जाये सारा जग सज्जन।।
सम भावों का मेल कराओ।
सब के मन में नित्य समाओ ।।
तोड़ जगत के सारे बन्धन।
जीव मात्र का कर अभिनंदन।।
सब के प्रति आकर्षण जागे।
उत्कर्षण हो आगे -आगे।।
सकल विश्व – परिवार बनाओ।
सुख-वैभव घर-घर पहुंचाओ।।
तिमिर भगाओ जग रोशन कर।
मानवता का संशोधन कर।।
त्याग वृत्ति का भाव जगाओ।
दानशीलता मन में लाओ।।
जग का हित साधक बन जाओ।
सब का आराधक बन जाओ।।
85- मीठा सच (दोहे)
कड़वा सच को त्याग कर, मीठा सच को बोल।
सब के मन में प्रेम का, मधुरस विलयन घोल।।
मीठा सच स्वीकृत सहज, यह अनमोल महान।
मीठे सच का जगत में, होता बहुत बखान।।
मीठी सच्ची बात सुन, श्रोता होत प्रसन्न।
मीठी सच्ची बात के, आगे फीका अन्न।।
सच्चे मीठे बोल से, कर सब का उपचार।
सब के मन को स्वस्थ रख, कर उत्तम व्यवहार।।
सच्चे मीठे वाक्य में, मोहकता की खान।
मधुर वचन से कीजिये, मानव का सम्मान।।
सच्चाई से प्रेम कर, जिस में रहे मिठास।
कड़वे सच्चा शब्द में, होता बहुत खटास।।
मीठे सच्चे तथ्य से, सदा चलाओ काम।
कड़वी सच्ची बात का, जल्दी मत लो नाम।।
86- मुझ को ऐसे ही रहने दो
(सजल)
मुझ को ऐसे ही रहने दो ।
अपने अंतस में बहने दो।।
एकाकी जीवन भी सुखमय।
मुझ को खुद से सब कहने दो।।
नहीं किसी से मुझे अदावट।
प्रिय स्वतंत्र मानव बनने दो।।
रहे न मेरे मन में ईर्ष्या।
मुझ को शीतल मन बनने दो।।
प्रियता का निज भाव जगे बस।
शिव भावों को नित रचने दो।।
मिलन आत्म से यही साध्य हो।
मुझ को बस खुद से मिलने दो।।
आत्मतोष का बजे नगाड़ा।
आतम में केवल बसने दो।।
87- मुझे भुलाना नहीं असंभव।
(सजल)
मुझे भुलाना नहीं असंभव।
इस जीवन में सब कुछ संभव।।
छूछे को है कौन पूछता?
किस को पड़ी कि जाने उद्भव??
नही जेब में एक टका है।
मुझे देखना परम असंभव।।
नहीं किसी के लायक मैं हूँ।
कैसे बन सकता हूँ सद्भव??
नहीं लोच मेरे जीवन में।
बनाना बहुत कठिन है तद्भव।।
मैं खोया रहता हूँ खुद में।
मुझे ढूढ़ना बहुत असंभव।।
मेरा जीवन वैरागी है।
माया-मोह कहाँ है संभव??
88- बन जाऊँ…
बन जाऊँ मैं गंगा सागर,
ऐसा मेरा मन करता है।
लहरें उठें चरण रज धोयें,
ऐसा भाव सदा उठता है।
तन मन कर्म सभी पावन हों,
यह विचार उठता रहता है।
नहीं किसी को दुःख पहुँचाऊँ,
यही वाक्य बनता रहता है।।
देख दुःखी को मन दुःख जाये,
मन में यही चला करता है।
संवेदना नहीं मर जाये,
आत्मिक-मन चिंतन करता है।
संगम बन जाऊँ मैं जग का,
मन प्रवाह चलता रहता है।
पावन पुण्य भूमि बनने का,
मन में मनन चला करता है।
मैं ही निर्मित करूँ स्वयं को,
यह संकल्प चला करता है।
जग को पावन खुद कर डालूँ ,
यह विकल्प उठता रहता है।
89- पावन गंग (चतुष्पदी
अब मैं पावन गंग बनूँगा।
सुंदर मानव रंग बनूँगा।
नहीं किसी से कोई आशा।
दुर्भावों से जंग लड़ूँगा।।
मैं द्रष्टा बन सदा चलूँगा।
सब में बैठा काम करूँगा।
ब्रह्म भाव की वृत्ति अनोखी।
इसी दृष्टि को रचा करूँगा।।
कण-कण में नित बहा करूँगा।
सकल सृष्टि में चला करूँगा।
हो अदृश्य बन जग का पालक।
आत्मतोष बन भूख हरूँगा।।
नाचूँगा नित थिरक-थिरक कर।
सकल लोक में घूम-घूम कर।
सकक विश्व की होगी चिन्ता।
भ्रमण करूँगा शुचि चिंतन कर।।
शिव का सुंदर आसन होगा।
हिम जैसा सिंहासन होगा ।
मन में पुण्य भाव की गंगा।
जग-उर में उल्लासन होगा।।
90- सहज प्रवृत्ति (चौपाई)
उद्भव उद्गम सहज प्रवृत्ती।
दया दयालु दमन दिल स्वीकृति।।
सरल ध्यानमय दिव्य प्रकाशा।
अति आनंद अनंतिम आशा।।
चरम परम अखिलेश अनंता।
सत्य धर्ममय प्रिय शिव कन्ता।।
अद्भुत अमर अजर अविनाशी।
सहज प्रवृत्ति सुखद रस प्यासी।।
प्रेम स्नेह निष्काम नर्म मति।
सकल जगत की हार्दिक सहमति।।
निर्छल नियमित नियम नियामक।
दंभरहित सद्वृत्ति सहायक।।
पाप विमोचन अति दुःखहर्त्ता।
सहज प्रवृत्ति मजल जगकर्त्ता।।
मायमुक्त सत्य सुखदायक।
परम ब्रह्ममय भक्ति विनायक।।
चातक केवल अति मधु रस का।
भाग्य प्रवर भागी शिव यश का।।
लोकातीत प्रीति अनुरागी।
सहज प्रवृत्ति बहुत बड़ भागी।।
91- वसंत पंचमी के पावन अवसर
पर-
पूजनीय माँ श्री सरसती जी की वंदना
(चौपाई)
माँ सरस्वती का नित वंदन।
प्रेमपूर्ण पूजन अभिनंदन।।
स्वीकारो माँ हृदय निवेदन।
हरो सदा माँ सारा वेदन।।
माँ का प्रति पल कर आराधन।
दिव्य भाव से हो अभिवादन।।
सकल लोक में परम यशस्वी।
अग्रगण्य माँ ज्ञान तपस्वी।।
नाथ जगत का विद्या सागर।
हंसवाहिनी लोक उजागर।।
बुद्धि विनायक सर्वा विद्या।
महा पुनीत भव्य शिव आद्या।।
रूप मनोरम अतिशय शोभा।
चमचम चमकत मस्तक आभा।।
सत्यार्थी प्रेमार्थ समर्पित।
ज्ञान निधान विधान सुसंस्कृत।।
पुस्तक वीणा हंस सुशोभित।
ज्ञान गीत सद्बुद्धि सुशोधित।।
परम विराग सुहाग सुवाचित।
धन्य धन्य माँ कृपा सुवासित।।
माँ!शिशुओं पर ध्यान दीजिये।
भक्तों को शुभ ज्ञान दीजिये।।
सद्विवेक का वर दो माता।
मन विकार को हर लो दाता।।
92- माँ शारदा का पूजन हो
(चौपाई)
मातृ शारदा का पूजन कर।
शुभकर आशीर्वाद लिया कर।।
सरल सहज भावों में बह कर।
नित्य मातृ का ध्यान किया कर।।
माँ का जो पूजन करता है।
रचनाकार वही बनता है।।
रचता रहता सुंदर पुस्तक।
माँ चरणों में हो नतमस्तक ।।
कमल चरण रज रख मस्तक पर।
लिखता रहता कविता सुंदर।।
मधुर भावमय पावन रचना।
रचना में माँ श्री का वचना।।
वचना में अमृत अक्षर हैं।
अक्षर में प्रिय ब्रह्माक्षर है।।
ब्रह्माक्षर में माँ की प्रतिमा।
प्रतिमा में विद्या की गरिमा।।
गरिमा में ही ज्ञान शक्ति है।
ज्ञान शक्ति में परम भक्ति है।।
भक्ति भावना का पूजन कर।
भक्ति रूप माँ का अर्चन कर।।
माँ स्वरूप वीणा घर आये।
अमृतसाग़र उर में छाये।।
ज्ञान सुगन्धित करने आ माँ।
नैनो में अब बस जाओ माँ।।
93- मुझे चहकने दो (चतुष्पदी)
मुझे चहकने दो आँगन में।
गीत सुनाने दो सावन में।
मधुर बोल प्रिय वचन सुनाकर।
थिरकूँगा तेरे मधु- मन में।।
पावस ऋतु में मस्ती होगी।
आँगन में शिव बस्ती होगी।
खिले पुष्प बहु रंग सुशोभित।
प्रेम रंग की कुश्ती होगी।।
आँगन में ही सदा रहूँगा।
बरसाती रस बन महकूँगा।
प्रेम पिपासा सहज बुझेगी।
दिव्य भाव का चन्द्र दिखूँगा।।
सहज प्रेम का अंक लिखूँगा।
शीतल मनज मयंक बनूँगा।
कर आँगन को शुचिकर रुचिकर।
उर स्थित आतंक हरूँगा।।
94- वीणापाणि मातृ श्री वर दे
(चतुष्पदी)
वर दे वर दे मातृ शारदे।
करुण भावना दिल में भर दे।।
तेरा कर हो मेरे सिर पर।
हम भक्तोँ को अपना घर दे।।
माँ!मन को कर दे सद्भावन ।
दिल को कर दे लोकलुभावन।।
बस जा माता सदा हृदय में ।
हे वीणापाणी ! मनभावन।।
कर में तेरे ग्रन्थ सदा हो ।
दृश्यमान शिव पंथ बदा हो।।
उतरे सारा जगत हृदय में।
शैली मधुरिम दिव्य अदा हो।।
नाम तुम्हारा वरदानी है।
कृपा पात्र सब सद्ज्ञानी है।।
सुंदर मानव का वर दे माँ।
दनुज भावना को हर ले माँ।।
वीन बजाकर गीत यज्ञ कर।
बनकर आ संगीतप्रज्ञधर।।
स्वर लहरी से रच मधुरालय।
वर दे हे माँ विज्ञ सुघर घर।।
95- दहेज (दोहे)
माँगन मरण समान है, मत दहेज को माँग।
कन्या पक्ष की आह से, बहुत दूर तक भाग।।
जो दहेज को माँगता,वह दरिद्र अति क्रूर।
नारायण की संगिनी, लक्ष्मी से अति दूर।।
मत दहेज लोभी बनो, वर को बैल न मान।
वर का मत विक्रय करो, यह अमूल्य सन्तान।।
जो वर को है बेचता, वह करता कुलघात। ।
करता खुद को नष्ट वह, पापी मन कुख्यात।।
बन दहेज प्रेमी नहीं, यह है आर्थिक रोग।
इस कुरोग से मुक्त हो, करना पावन योग।।
जो दहेज भोगी बना, उसका सत्यानाश।
इस कुत्सित धन से बचो, कर श्रम पर विश्वास।।
ईश्वर से ही माँगना, मानव से मत माँग।
ईश्वर का साथी सदा, पाता उत्तम भाग।।
96- आश्चर्य (दोहे)
पढ़ता-लिखता है नहीं, फिर भी करता ‘टॉप’ ।
ना जाने किस बुद्धि का, बना हुआ वह बाप।।
झूठ बोलता है मगर, कहलाता सत्यार्थ।
यह कैसा आश्चर्य है,बन जाता है पार्थ??
पैसे-पैसे के लिये, नातवान इंसान।
फिर भी दुनिया मानती, बहुत बड़ा धनवान।।
अक्षर को देखा नहीं, बनता है विद्वान।
विद्वतपरिषद में सदा, पाता है सम्मान।।
राष्ट्रद्रोह में लिप्त नर, बनता बहुत महान।
राष्ट्र संपदा बेचकर, कहलाता धनवान।।
फैलाता है जेल से, अपना मायाजाल।
मौन प्रशासन देखता, बहुत घिनौनी चाल।।
घूसखोर की वृत्ति से, जनता अति संत्रस्त।
करने वाला है नहीं, अधिकारी को पस्त।।
97- मुझे साथ रहना है केवल तुम्हारे
(सजल)
मुझे साथ रहना है केवल तुम्हरे।
जीना है मुझको तुम्हारे सहारे।।
तुम्हीं दिल के वासी निवासी हो मन के।
तुम्हीं एक साथी हो सुंदर हमारे ।।
तुम्हें देखकर दौड़ती स्नेह लहरें।
तुम्हारे सहारे लगूँगा किनारे।।
तुम्हीं मेरे सरताज सुंदर सलोने।
तुम्हीं मेरे मस्तक के चंदन सितारे।।
तुम्हीं मेरे जीवन की अनमोल गाथा।
तुम्हें मेरी कविता के अक्षर पुकारें।।
तुम्हीं मेरे सावन तुम्हीं मेरे भादों।
तुम्हीं मेरी यादों के अनुपम दुलारे।।
तुम्हें खोजती मेरी आँखें हैं प्रति पल।
तुम्हीं मेरे मन के हो खुशबू बहारें।।
98- मातृ शारदा सहज सिद्धिदा
(सजल)
मातृ शारदा सहज सिद्धिदा।
महा ज्ञानिनी दिव्य बुद्धिदा।।
विद्या महा विलक्षण दिव्या।
विदुषी महा विनम्र शुद्धिदा।।
सत्यार्थी निष्काम प्रेमवत।
परहित धाम अनंत धर्मदा।।
अमृतवादी वचन पुनीता।
सत्कर्मी संतुष्ट पुण्यदा।।
फलवादी अमृत फल वर्षा।
सफल सुफल विवेक मधु फलदा।।
सहज अनंत असीम निकट हिय।
प्रिय भाषा मधु बोल शारदा।।
तत्व परम विज्ञान सुदीक्षित।
प्रिय अति शांत चित्त शिव सुखदा।।
बैठ हंस पर ले पुस्तक को।
रस बरसा माँ बनी ज्ञानदा।।
99- शिव भाषा (चौपाई)
तत्व परम शिव अति कल्याणी।
शिव जिसमें वह मोहक प्राणी।।
शिव विरंचि भगवान महेशा।
शिव बिन सदा ताप दुःख क्लेशा ।।
जागृत जहाँ सत्य नित शिवता।
अनुपम दृश्यमान मानवता।।
वहीं त्यागमय शिवशंकर हैँ।
तपोभूमिमय पावन घर है।।
शास्वत सत्य दिव्य हित संस्कृति।
प्रिय सम्मोहक मधुमय सत्कृति।।
अति व्यापक विराट आत्म मन।
शुभ्र श्वेत निर्मल सुजान जन।।
धर्म भावना बहती रहती।
सबको शीतल करती चलती।।
असहज कुछ भी नहीं यहाँ है।
सब कुछ सुंदर सहज जहां हैं
भावुकता की कल्पलता है।
उत्तम की शत प्रतिशतता है।।
मंगलकारी कर्म प्रवृत्ती।
तप करने की सदा स्वीकृती।।
शिव भाषा अति स्नेहमयी है।
यह अभिलाषा ब्रह्ममयी है।।
शिव परिभाषा को अपनाओ।
हर प्राणी को गले लगाओ।।
100- चल रचना (चौपाई)
चल रचना तुम घर-घर घूमो।
मानवता के मुँह को चूमो।।
बढ़ते रहना चलते जाना।
मचल-मचल कर दिल बहलाना।।
अपनी प्यारी दिव्य अदा से।
दिल से मिलना हर मानव से।।
सबको मोहित करती रहना।
छिपे प्रेम को सबसे कहना।।
रचना रूपी प्रेमपत्र हो।
यत्र तत्र सर्वत्र एक हो।।
सबको अपना भजन सुनाना।
मन से सब को सजन बनाना।।
बह बह बह कर सागर बन जा।
प्रेम सुधा रस आखर बन जा।।
सबके मन को नित्य लुभाओ।
सब में जा कर रच-बस जाओ।।
तुझको गाये सारी जगती।
लगे महकने सारी धरती।।
मिलजुल कर सब हर्ष मनायें।
रचना को साकार बनायें।।
रचना से हो अमृत वर्षा।
हो जनमानस में उत्कर्षा।।
रचना में दिनकर को देखो।
राम श्याम शिवशंकर देखो।।
रचना! खुश कर मानवता को।
दलती रहना दानवता को।।
सारा जगत जपे रचना को।
सभ्य सुसंस्कृत मधु वचना को।।
रचनाकार :
डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी
ग्राम व पोस्ट हरिहरपुर(हाथी बाजार), जनपद वाराणसी-221405
उत्तर प्रदेश, भारतवर्ष।