4. दृष्टि
मछली को तड़पते
देखा है सबने।
जल के बाहर ।
तडपन नही दिखती
उसकी
जल के भीतर।
छ्टपटाती तो होगी वह
जल के भीतर भी ।
तैरते मटकते,
ऊपर नीचे,
चुपके से
डुबकी लगाते हुए
आहत होकर
कभी तो
कुंठित भी होती होगी वह ।
काश
दृष्टि ऐसी होती कोई,
स्वच्छ निर्मल जल को
बेंध लेती।
इस पार -उस पार होते
छटपटाहट उसकी –
भांप लेती –
जल के भीतर भी।।
शायद
तब लालायित न रहती
हर दृष्टि
तड़पन उसकी परखने को
चुभन उसकी-
अपनी सी लगती।
क्या जल के बाहर,
क्या जल के भीतर। ***