1- “जब सांझ ढले तुम आती हो “
1- “जब सांझ ढले तुम आती हो “
जब सांझ ढले तुम आती हो
आती है तब इक मंद बयार
छेड़े गए हों जैसे मन के तार
झंकृत होता है ज्यों अंतर्मन
जैसे दूर कहीं रहा हो कीर्तन
जैसे कोई अधखिली कली धूप में
ज्यों मंद -मंद मुस्काती हो
जब सांझ ढले तुम आती हो
दुनिया –जहान की उलझन मन पर मेरे
यूँ तो रहती है मुझको हर दम घेरे
तब बस इक उम्मीद ही मीते
तुम्हारी
मेरे हर दुख पर पड़ती है भारी
कोई राग मन में नया मेरे जैसे तुम हँस -हँस के
छेड़ जाती हो
जब शाम ढले तुम आती हो
आहत होता मन, निष्फल उम्मीदें
जब पूरे दिन मुझे हराती रहती हैं
तब प्रेम की लौ तुम्हारी, इक प्रत्याशा है मन में लाती
पछुआ में जैसे जूझ रहे हों,
इक साथ दिया और बाती
इक उम्मीद मेरे हारे मन में
तुम न जाने कैसे भर जाती हो
जब शाम ढले तुम आती हो
ये धूप -छांव ही है मितवा अपने जीवन का खेल
संभव ही नहीं लगता है संध्या और प्रभात का मेल
नाउम्मीद मैं बहुत पहले से हूँ
फिर भी ना जाने क्यों एक उम्मीद ,तुम्हारी उम्मीद जगाती है
जब सांझ ढले तुम आती हो
हम इसी उम्मीद के सहारे मितवा, किसी तरह जी लेंगे
जीवन रस कितना भी कड़वा हो
मन मार के किसी तरह पी लेंगे
जब मन के सारे दुख मेरे
बारी -बारी से बोलेंगे
तब तुमसे ही तो अपने मन की सारी गाठें खोलेंगे ,
मेरे इस सुख -दुख को सुनकर मीते
तुम अनायास क्यों मुस्काती हो
जब शाम ढले तुम आती हो।
समाप्त
2-“यहां से सफर अकेले होगा”
यहाँ से सफर अकेले होगा जीवन की इस अंतहीन यात्रा में खोई हुई पगडंडी में जीवन के आंधी -अंधड़ सब आयेंगे इस बिखरे सूने उपवन में विकराल यथार्थ का धरातल बहुत खुरदुरा, भयानक होगा मगर , यहाँ से सफर अकेले होगा
मैं न रहूंगा जब पांव के छाले मन तक को तुम्हारे चीरेंगे कोई दवा या सांत्वना ही मेरी तब साथ तुम्हारे शायद होगी , मगर बेअसर हो गयी तो क्या तुमको उस जीवन की दावानल तिल- तिल जलना और बचना होगा , यहां से सफर अकेले होगा
कोई संधान तुमने किये ही होंगे लेकर अपने अतीत से लेकर कोई सीख वो भीषण जीवन जो तुमने जिया कुछ तीर तुणीर में तो होंगे ही उनके ही बूते पर तुमको , खुद से जग से लड़ना होगा यहाँ से सफर अकेले होगा
मैं न रहूंगा जब पांव के छाले मन तक को तुम्हारे चीरेंगे
जब युध्द युध्द और सिर्फ युद्ध जीवन की तुम्हारे परिणीति होगी जीतोगे या हारोगे ,फर्क नहीं जीवन के समर में तब मीते बस हासिल तुम्हें चीखें होंगी , वो चीख अपनी हो या पराई उस चीख पर भी बिलख कर रोओगे तब यही सम्वेदना मेरी साथी एक सम्बल बन कर उभरेगी लेकिन ये सब जब होगा तब होगा मगर यहॉं से सफर अकेले होगा कृते -दिलीप कुमार
समाप्त
3-“ये प्रेम कोई बाधा तो नहीं “
ये प्रेम कोई बाधा तो नहीं
तुम आँचल समेटे कहती हो
मैं मृदु बातों में उलझा ही क्यों
ये भंवर सजीले हैं मितवा
जो हम दोनों को ही ले डूबेंगे
ये मोह का जाल है प्रेम भरा
जिसमें प्रेम के पक्षी फँसते ही हैं
फिर भी
ये प्रेम कोई बाधा तो नहीं
तुम अक्सर इस बात से को कहती हो
मैं इतनी दुहाई प्रेम की क्यों कर देता रहता हूँ
कि प्रेम बिना जीवन सूना और बिल्कुल ही आधा -अधूरा है
पर प्रेम जिन्हें हासिल ही नहीं
उनका जीवन भी तो चलता है , आधा और सादा ही सही
फिर भी
ये प्रेम कोई बाधा तो नहीं
मुझे बहुत लिजलिजे लगते हैं
ये प्यार -मोहब्बत के दावे
तुम इस बात पर हैरां रहती हो
कि मैं प्रेम बिना कैसे रहता हूँ
वैसे ही जैसे कितने ही लोग
बिन उम्मीदों और सपनों के जीते रहते हैं
थोड़ा अलग है उनका जीवन फिर भी
ये प्रेम कोई बाधा तो नहीं
चलो, अब प्रेम की बातें छोड़ो
कहीं तुम भी प्रेम में न रच -पग जाओ
जीवन है इतना क्रूर , विषम
हम सब ही उससे हारे हैं
अब प्रेम हो या फिर लिप्सा हो
जीना तो आखिर ऐसे ही है
अरे तुम ,विचलित सोच रही कुछ , क्या कहना है ,फिर भी
ये प्रेम कोई बाधा तो नहीं है ।
समाप्त
4- “तुम वापस कब आओगे “
सूनी आंखे रास्ता देखें
तुम वापस कब आओगे
गरज -बरस के निकली बदरिया
भीगी मोरी कोरी चुनरिया
फैली उदासी तन -मन में है
शून्य ही शून्य जीवन में है
याद तुम्हारी घेर के बैठी
क्या तुम भी मुझे बिसराओगे
तुम वापस कब आओगे
सांझ -सवेरे हो या भरी दुपहरी
ज़िंदगी मेरी तुम बिन है ठहरी
जहाँ पे तुमने छोड़ा मुझको
शिलाखंड सा वहीं पड़ी रही मैं
बन के अहिल्या राह देखती
राम मेरे तुम कब आओगे
तुम वापस कब आओगे
दर -दर भटकी जोग में तेरे
विरह-वेदना मन को थी घेरे
चहुँ ओर से धिक्कार मिली बस
कितनी हूँ मैं आहत बेबस
डोर छूट रही जीवन की अब
मुक्त तो तुम भी न हो पाओगे
तुम कब वापस आओगे
अच्छा, मत आना तुम वापस
इस ऊसर मन की सूनी घाटी में
तिल-तिल गलती,मिलती जाती हूँ माटी में
माटी तो सब कुछ लेती है समेट
शायद अब तुमसे न कभी हो भेंट
क्या तुम भी विस्मृत कर पाओगे ।
तुम वापस कब आओगे
समाप्त
5- “जब आज तुम्हें जी भर देखा “
जब आज तुम्हें जी भर देखा
कोई तेज तुम पर आलोकित था
मेरा रोम -रोम यूँ पुलकित था
मेरे दिल की धड़कन थी बेकाबू
तेरी आँखों में था क्या कोई जादू
मन के मंदिर में है तब से हलचल
जब आज तुम्हें
तब थम ही गया था समय का पहिया
बादल -बिजली की ज्यों हुई हों गलबहियां
मैं व्यर्थ ही अब तक रोता रहा
डगमग जीवन नैया किसी तरह खेता रहा
तुमसे ही जुड़ी मेरी विधि की लेखा ,
जब आज तुम्हें जी भर देखा
यूँ तो तुम्हें देखा करता था कब से
पर आज मानों पल में सदियां बीतीं
चंचल चितवन और तुम्हारे मुस्काते अधर
जैसे कोई प्राणदायिनी उतरी हो धरती पर
और प्राण खींच ले चली हो हँसकर
जब आज तुम्हें जी भर देखा
जब देख ही लिया ये रुप तिलिस्म
गिरवी हो गया मेरा रूप और जिस्म
ये मोह -नेह के हैं मनभावन धागे
कोई इनकी पकड़ से कब तक भागे
जीवन मिलेगा या मृत्यु का वरण
तुम ही तय करो मेरी किस्मत
जब आज तुम्हें जी भर देखा ।
समाप्त
कृते -दिलीप कुमार