23/108.*छत्तीसगढ़ी पूर्णिका*
जब हम सोचते हैं कि हमने कुछ सार्थक किया है तो हमें खुद पर गर
यूं सरेआम इल्ज़ाम भी लगाए मुझपर,
श्वासें राधा हुईं प्राण कान्हा हुआ।
विश्वास
धर्मेंद्र अरोड़ा मुसाफ़िर
लहज़ा तेरी नफरत का मुझे सता रहा है,
उनका सम्मान तब बढ़ जाता है जब
कितनी ही गहरी वेदना क्यूं न हो
चंद्रयान-3 / (समकालीन कविता)
खुद को इतना हंसाया है ना कि
साहिल के समंदर दरिया मौज,
खडा खोड झाली म्हणून एक पान फाडल की नवकोर एक पान नाहक निखळून
ॐ
सोलंकी प्रशांत (An Explorer Of Life)
*अर्चन स्वीकार करो हे शिव, बारिश का जल मैं लाया हूॅं (राधेश्
🥀*गुरु चरणों की धूल* 🥀
जूनियर झनक कैलाश अज्ञानी झाँसी
प्यार..... करना, जताना और निभाना... तीनो अलग अलग बाते है.. प