25-बढ़ रही है रोज़ महँगाई किसे आवाज़ दूँ
बढ़ रही है रोज़ महँगाई किसे आवाज़ दूँ
मुफ़लिसों की जाँ पे बन आई किसे आवाज़ दूँ
बेटियों की आबरू लुटती सर-ए-बाज़ार अब
ईश बन बैठा तमाशाई किसे आवाज़ दूँ
जाति मज़हब की सियासत देख हिंदुस्तान में
हो रही दुनिया में रुसवाई किसे आवाज़ दूँ
जिस हसीं को ढूँढता हूँ मुद्दतों से दोस्तो
वो कहीं देता न दिखलाई किसे आवाज़ दूँ
ज़िन्दगी मेरी तमाशा बन गई है बिन तेरे
अब सही जाती न रुसवाई किसे आवाज़ दूँ
बाँट लेता था ‘विमल’ जो रंज-ओ-ग़म हमदर्द बन
ठेस उसने दिल को पहुँचाई किसे आवाज़ दूँ
~अजय कुमार ‘विमल’