18) ख़्वाहिश
अक्सर जब दर्दे-मुहब्बत लिए
तन्हा तेरे इंतज़ार में बैठी होती हूँ
तो तेरी याद गम को साथ लिए
तेरे न आने का अंदेशा देती है।
उस लम्हा
मेरे ज़ेहन में ख़्याल आता है कि
काश!
खुदा ने भी कभी किसी से
दिल लगाया होता,
उस मुहब्बत बनाने वाले ने भी
कभी मुहब्बत की होती,
कभी किसी के इंतज़ार में
आंखें बिछाई होतीं,
कभी उसके गम में रोया होता,
कभी उसकी आंखों में भी वस्ल की घड़ी
खुशी के चार आँसू बहे होते।
काश!
कि उसने भी यह दर्द सहा होता,
इससे वाकिफ होता।
काश कि ऐसा होता,
ताकि अपने बंदों को
यह दर्द सहने को न देता,
उसके बंदों को यह सोचने पर
मजबूर न होना पड़ता।
मगर यूँ महसूस होता है
कि खुदा वाकिफ ही नहीं
मुहब्बत के दर्द से।
‘गर ऐसा होता तो
मुझे तो न यह सहना पड़ता,
न तेरे इंतज़ार में यूँ शमा की मानिंद जलना पड़ता,
न मुहब्बत करती, न यह सब होता।
मगर सोचती हूँ
‘गर ऐसा ही है तो ख़्वाहिश है
बल्कि दुआ है मेरी
कि तुझे ही मेरे दर्द का अहसास हो जाए,
ताकि कुछ तो गम का बोझ हल्का हो,
अहसास कम हो गम का।
गम
कि तू इस दर्द से परे है,
नावाकिफ है, अंजान है,
गम
कि क्यूँ तुझ से बेख़बर पर मर मिटे,
कुछ तो तेरे भी दिल में हो।
मगर काश !!……
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नेहा शर्मा ‘नेह’