15.डगर
नगर से एक डगर-
नगर से लेकर महानगर तक-
जाती है बल खाती ।
नहीं धरा उस पर
कभी भी –
पैर अपना ।
डर था या
थी आशंका –
या फिर कुछ ऐसा –
जो भयातुर करता था-
महा शब्द से
महाकाल-
महायुध्द
महामारी
सब डराते थे महानगर
की डगर से ।
फिर भी थी मन में –
एक जिज्ञासा-
नगर से बने
महानगर को ताकने की।
एकदिन – ?
डर को सिकोड़ा
साहस से ।
आंशका पर ओढा –
जिज्ञासा का आंचल ।
धरा पग, उस डगर पर
थी जोड़ती जो –
नगर को महानगर से ।
सचमुच –
महान् था महानगर ।
महासागर सा उछाले –
मारता हुआ ।
हाय हाय के स्वर में –
सबको डूबा रहा।
दिन दिन न था –
रात कभी होती नहीं
दौड़ रहा था जीवन
फुरसत सुस्ताने की न थी।
इन्सान ढूंढ रहा था-
इन्सानियत को
खोकर अपनी पहचान भी
सब डबडबा रहा था
सागर में रिस्ती-
नदियों सा
ढूंट रही हूं अब – –
अपनी पहचान
इसी महाआवेग में-
और उस डगर को
जो जोड़ती थी कभी –
नगर को महानगर से
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