13 अप्रैल 1919 जलियाँवाला बाग
धुल जाएगा ऐसा तो ये दाग नहीं।
कुछ गाऊँ मैं इस पर, ऐसा मेरा राग नहीं ।
हूक उठती एक ह्रदय में,
जिसने दी पीड़ा उन फिरंगी लाटो को।
उठा दूँ इस जमी जहाँँ से,
कर दूं बेरंगी उनकी खाटों को।
देखा नहीं गया हत्याकांड वो जलियांवाला ।
मूक रहा फिर भी रखवाला दुनियावाला ।
लहरों में उठते थे तूफाँँ,
कुछ चुनिंदा सियारो के ,
फिरंगी लगते थे फूफा।
बरसाने आग चले योद्धा,
उन भारत के वीरों को अपनों ने ही रौंदा ।
सैफुद्दीन किचलू सहित साथी,
गिरफ्तार किया उस डायर डायन ने।
ऐलान सभा का हो गया –
होगा विरोध अब तो भारी ।
नागो से फूँकार उठी ,
भारत माँँ पुकार उठी ।
उबल पड़ा था ज्वार नसों में,
क्रोध बड़ा था युवा नसों में।
जवाँँ युवों की फौज उठी।
तूफा जैसी मौज उठी।
बलिदान थी माता खोज उठी।
सिंह गर्जना रोज उठी ।
सर का अमृत विकराल बना।
शैशव भी था महाकाल बना।
कुकर्म फिरंगी शाल रहा।
नेता अपना मिसाल रहा।
संदेसा वो पाल रहा ।
आजादी का नेपाल रहा।
टिड्डी दल सी भीड़ उठी ।
उस डायर की थी नींद उड़ी ।
जलियांवाला बाग सजा ।
वहां अचानक कोहराम मचा।
उस निर्मम डायर डायर ने,
नरसंहार किया उसका कायर ने।
गोली की बौछार चली।
डायल निकला बड़ा छली।
लाशें थी वहां बिछी पड़ी।
मानवता वह मरी पड़ी।
करुणा चित्कार निकल रही।
योजना पहले से थी पल रही ।
वह जनरल नहीं जन रद्दी था।
किया माँँ कोख को उसने भद्दी था।
दैत्य वंश में पला हुआ निशाचर था।
गोरे देश में जन्मा काला शनीचर था ।
जीवन था अब मरा हुआ।
वह बाग अब भी मरा हुआ।
कमीशन गिनने मौतों को।
चला नापने मानवता को,
बहला के छोड़ दिया विवादों को –
भूल गए फिरंगी अपने वादों को।
डायर के कायर को खिताब मिला।
अंग्रेजों को वोआफताब मिला।
न्याय हुआ नहीं अब तक,
आजादी के बाद भी।
कर गये अंग्रेज देश को बर्बाद भी।
बदला चुकता कैसे हो ? यह सोचा !बाग
किसने सोचा ? कैसा सोचा ! क्यों सोचा ?
अंग्रेजी शतरंज के हिंदुस्तानी मोहरे ,
उनकी ही वाणी में बोले हरे हरे ।
एक सिंह उधम मचाने वाला,
भारत माँँ का लाल था प्यारा वाला।
चला खोजने उस नीच कलंकी को,
कुछ साल लगे, पर खोजा उस कमी को ।
मारा गोली सीने में, उस हरामी को।
माता को सत्कार दिया,मौत का उपकार किया ।
वीर बहादुर प्रतापी को, माता ने उधम सिंह नाम दिया।