12) “पृथ्वी का सम्मान”
पृथ्वी हो रही बंजर, सूनी पड़ी है डगर।
तिनका तिनका बो कर,ख़ुशबू माटी की पकड़।
हरियाली का मिट रहा नामों निशान,
खुशहाल हरी भरी बस्ती में होता,
शुद्घ आक्सीज़न का भंडार।
संभल जाओ हे इंसान, करो इसका मान,
नहीं तो…
दोगे क्या जीवन दान?
काट रहे,हरे भरे पेड़,करो ना कोई छेड़,
क्योंकि..
पर्यावरण नहीं है कोई खेल।
ग्राफ़ बना विकास का,
क्या सफ़ा नहीं,जंगल व पशुजात का?
जानवर चला,बस्ती की ओर,
इंसान ने छीना,उसका छोर।
ध्वनि से हुआ प्रदूषण,
साँसों से छूट रहा पोषण।
दूषित हुआ सरिता का जल,
क्या सोचा कभी, कैसा होगा,
आने वाला कल?
बाढ़,सुनामी व भूकम्प,दिखा रहे मौत का मुँह,
सोचो ज़रा..
कांपती नहीं क्या तुम्हारी रूह?
प्रकृति की हो रही विकृति,झेल रहे क्षति,
सुनो..धरती की पुकार,
क्यूँ नहीं देते धरती माँ को थोड़ा सा प्यार?
दम घुट रहा,निकल रहे प्राण,
कर लो कोशिश,पेड़ लगाओ,
हरी भरी धरा को जगाओ।
जन जन का होगा कल्याण,
मिलेगा जीवन दान।
“पृथ्वी का सम्मान”
✍🏻स्व-रचित/मौलिक
सपना अरोरा ।