10) पैगाम
वो दो परिंदे देखे थे जो सुबह-सवेरे,
हम दोनों ही थे वो,
हमारा ही अक्स था उनमें।
कितनी देर बैठे रहे यूँ ही दोनों,
शायद कुछ गुफ्तगू कर रहे थे दोनों।
हाँ,
खोये थे दोनों खामोश गुफ्तगू में।
लब खामोश थे मगर आँखें बोल रहीं थीं,
पैगाम दे रहे थे दोनों मुहब्बत का एक दूजे को।
दे गए वो सुकून कुछ पल दिल को,
उड़ गए फिर लेकर मेरा पैगाम तुम तक पहुँचाने को।
इंतज़ार करता रहा दिल तुम्हारा पैगाम आने का,
अहसानमंद हूँ तुम्हारी मायूस नहीं किया तूने।
भेजा उनको वापिस पैगाम देकर,
शब-ए-वस्ल का पैगाम,
अपने आने का पैगाम देकर।
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नेहा शर्मा ‘नेह’