जब तेरी याद के सागर में उतर जाता हूं।
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जब तेरी याद के सागर में उतर जाता हूं।
मैं कोहिनूर नगीने सा संवर जाता हूं।
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अब तो पूरी नहीं होती कोई ख्वाहिश अपनी ।
अब तो बच्चों की ही ख्वाहिश लिए घर जाता हूं।
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दिन गुज़र जाता है अब सारी ज़िम्मेदारी में ।
रात जब होती है सन्नाटे से डर जाता हूं।
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मैं चलता रहता हूं हर रोज़ तेरे ख्यालों में ।
न जाने कौन सी मंजिल है किधर जाता हूं।
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सिमट के रहता हूं मैं दोस्तों की महफ़िल में ।
चहारदीवारी में रहकर मैं बिखर जाता हूं।
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मुझे तो होश भी आता है गली में उसके।
सारी बस्ती से तो अनजान गुज़र जाता हूं।
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गवाही देता हूं मैं अपने ही खिलाफ सगी़र।
जो तेरे हक में नहीं हूं तो मुकर जाता हूं।
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डॉक्टर सगीर अहमद सिद्दीकी खैरा बाजार बहराइच यूपी इंडिया