? प्रेम के उन्मान?
डॉ अरुण कुमार शास्त्री ?एक अबोध बालक ? अरुण अतृप्त
? प्रेम के उन्मान?
प्रेम को करना नहीं होता
प्रेम हो जाता है सहज स्वतः सतत
स्त्री का प्रेम और पुरूष का प्रेम
प्रेम को इस तरह से बांटना
नही लगता न्याय पूर्ण
और न ही न्याय संगत
प्रेम में अगर झुकना पड़ा
और करनी पड़ी जी हजूरी
मेरी समझ में प्रेम ऐसा
नहीं ये तो हुई मजबूरी
प्रतिभाओं का मान हो सम्मान हो
लेकिन जहां लैंगिक भेद का
प्रावधान हो तो समझ ,
प्रेम का अपमान हो
स्त्री भाव से होती है बंधी
और पुरुष भावुकता से भीगता हो
तभी जाकर होता है मिलन
ये मेरा मन तो कहता है
हाँ कोमल हृदय के अनुराग को
मत समझ लेना तुम कहीं
स्त्री के व्यक्तित्व के नमन को
स्वाभिमानी स्त्रियां भी टूटती है
पारिवारिक पृष्ठभूमि से
होकर विह्वल जिसको अप्रत्यक्ष
अपरोक्ष मान लेते हैं अनुभूति
अनुमति धोखे से स्वांग से
चाटुकारिता से
छल से कपट से ऐसा नही कि
स्त्रियां बस में नहीं आती
किंचित ऐसे प्रकरण की तो
प्रति दिन वो हो जाती हैं आदी
उनके स्वाभिमान को अक्सर
अभिमान समझ लिया जाता है
पुरूष हो तो सत्य के प्रयोग से
प्रतिभा बुद्धि विवेक के प्रज्ञान से
मन को छूना यदि आता है
ऐसा ही प्रेम जगत में
निश्छल कहलाता है
इसी प्रेम से प्रकाशित हो
स्त्री का मन नतमस्तक हो जाता है
पोरा पोरा ऐसी स्त्री का
रजनीगंधा सा पुष्पित हो
महक जाता है
प्रेम में तर्क को त्याग कर
जब कोई स्त्री और पुरूष मिलते हैं
तब ही जीवन के मुखरित स्वर
समरस हो कर माधुरी में
एक साथ बजते हैं
प्रेम को करना नहीं होता
प्रेम हो जाता है सहज स्वतः सतत