💐 देह दलन 💐
डॉ अरुण कुमार शास्त्री
एक अबोध बालक 💐💐 अरुण अतृप्त
💐 देह दलन 💐
मन बैरागी क्या जाने
सूनी अखियों से जग छाने
पीर पराई न दिखती
जब तक अँखियों से न बहती ।।
भीतर की टीस जलाती है
धीरे धीरे सुलगाती है
शांत दिखा करता जो मन
उसमें तूफ़ान उठाती है ।।
इसकी सुन ली उसकी सुन ली
जिस जिस ने थी कहनी
उसकी गुन ली
मन डोल गया
तन बोल गया
बिन बोले भी सब बोल गया।।
वैष्णव जन थे रघुवर दासा
नित सत्य सनातन धर्म गहे
घुट घुट कर जीना मुश्किल था
इस कारण मुखरित वाचाल हुए ।।
निज शंका कौतूहल की जननी
पल पल देती थी शिक्षा अवनी
धीर धरो हे मानव मनवा
होनी तो है होकर रहनी ।।
मन बैरागी क्या जाने
सूनी अखियों से जग छाने
पीर पराई न दिखती
जब तक अँखियों से न बहती ।।