?ज़ौक़ एय जिंदगी ?
डॉ अरुण कुमार शास्त्री?एक अबोध बालक?अरुण अतृप्त
?जौक एय साकी?
दूरियाँ बना कर किसी को कुछ नही मिलता जहाँ में
दो चार पल का जीवन तुम सबसे मिलो खुशी से ।।
यहां कौन किसका भाई और कौन किसका सगा है
हर कोई इस जगत में अपने अपने कर्मो को ढो रहा है ।।
तुझसे गिला करूँ मैं तो किस बात का करूँ
मेरे नसीब में है जो वो ही तो मुझको मिला है ।।
परछाइयों का पीछा अजी छोड़िए जनाब
परछाइयों से अब तक किसी को कुछ भी नहीं मिला है ।।
क्या करेंगे जान कर मेरा ताअरूफ़ एय ज़नाब
पूछना ही चाहते हैं तो मालिक का पता लीजिये जनाब ।।
ता उम्र मैं जिंदगी की जंगो जहद में ही उलझा रहा
न याद किया उसको न पढ़ी नमाज़ न कभी सिजदा ही किया ।।
बहुत हँसीन शय है ये चार दिन की जिंदगी सनम
शुगल मेला रंजो नालिश आशिकी इश्क सब कुछ तो है सनम ।।
जिससे भी मिलो ज़नाब तहजीब से मिला कीजिए साहिब
इतनी बड़ी दुनिया है क्या पता कब मदद की जरूरत पड़े साहिब ।।
आदमी को आदमी से इश्क़ न हो तो आखिर क्या हो
यूं ‘अबोध बालक’ बन के फिरते हो बुलबुला ही तो हो ।।