🌷”फूलों की तरह जीना है”🌷
🌷”फूलों की तरह जीना है”🌷
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‘मन’अनुरंजित, ‘तन’ अनुरंजित;
सदा कुसूमित हो, जीवन अपना।
हर कोई ही प्रफुल्लित हो, हमसे;
आते ही पास,दूर हों निज गम से।
खिला-खिला रहे, जीवन,मन से;
जब टूट भी जाएं, जो उपवन से।
काम सदा आएं,क्षणिक ही सही;
दर्द ना हो हमें , तनिक भी कहीं।
आसन बने हम भी, कई ‘देवों’ के;
मन बहलाएं, मानव सह भौरों के।
मधुप हैं प्यारे , रसपान करे हमारे;
तब मन मिठास पाए, ये जग सारे।
उस ‘डगर’ पे भी , हम ही सजे हों;
जिस डगर पर से , सपूत गुजरे हों।
बंधे हों ‘तिरंगे’ में, हमारी शान बढ़े;
हर धर्म-कर्म में , हम ही सदा चढ़े।
निज रंग रूप भी,एक प्रतीक दिखे;
कई रंगों में खिले हों,गुलाब सरीखे।
हरेक गले का भी, हम ही हार बने;
हर जनों के लिए,हम ही ‘प्यार’ बने।
कई काटों के बीच , खिले रहें हम;
सदा सुरक्षित,अपनी सुगंध फैलाते।
ये हमने सदा, फूलों से ही जाना है,
अब हमें, “फूलों की तरह जीना है”।
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स्वरचित सह मौलिक;
..✍️पंकज कर्ण
……..कटिहार।