️️ जमाने को देखता हूं ️️
घर से चला , राहगीर पथ में मिला।
पूछा,
क्या करते हो ?
बोला,
जमाने को देखता हूं।
परिवर्तन कितना हो गया,
सोचता हूं।
क्या ? यह वही समाज है,
जो कभी,
परहित पर चलता था।
चहुंऔर मुझे तो दिखता,
स्वार्थ का मंजर है।
हर कोई किसी को,
घोंप रहा खंजर है।
घावों पर मैं उनके,
मरहम लगाता हूं।
सुबह जाता हूं शाम को आ जाता हूं।
जमाने को देखता हूं।।
राजेश व्यास अनुनय