【लक्ष्य को, प्रदर्शित करता,एक, उत्प्रेरक तीर्थ】
कर न्यौछावर,
कभी देह में,
स्थिर कुटिलता,
की डगर को,
यह सोचकर कि,
बुरा नहीं इससे अधिक,
कोई विधानवश,
संयम से,
रख नज़र,
इसके अन्य,
पहलुओं पर,
जो छलते हैं,
प्रक्षिप्त शत्रु की तरह,
यह शत्रु सदैव,
रहता है जाग्रत,
सजग,अपनी,
चेतना में,
तो क्यों मैं तू ,
नहीं रहते सजग,
इसके प्रति, अपने,
अगाध चिन्तन से,
समझकर यह कि,
मैं, तू समुद्र हैं,
और यह बूँद,
जो समा जाएगी,
इस विशुद्ध होते,
अन्तःकरणार्णव में,
चिन्तन कर,
सर्वदा उस एक,
शक्ति की भेषज का,
जो स्वस्थ करती,
मनोमालिन्य पर,
खिचीं मोह की,
दुष्कर लकीरों को,
जो बनाती हैं,
अपना इन्द्रजाल,
इतने साम्य में,
कि न ज्ञात हो,
उनका आकार,
पर उनकी,यह,
हठधर्मिता निष्फल,
होती है,एक ही,
ससीम प्रयोग से,
कि ध्यान रख,
अपना और अपने,
अन्दर चलते,
उस मधुर,
संगीत का,
जो स्वयं में,
ही मन्दिर और,
है लक्ष्य को,
प्रदर्शित करता,
और उसकी प्राप्ति का,
पथ निर्धारित करता,
है एक,
उत्प्रेरक तीर्थ।
©अभिषेक पाराशर?????