【मधुर स्मित, अधरों की लहर】
लोकों को,
मोहित करती है,
सँवारती है,
बस यही है,
सब कुछ जगत में,
यही वर्ण का वेग,
यही योग है,
यही सुयोग है,
न हो सम्मुख ये,
तो महसूस हो,
विच्छेद होती है,
आत्मा, शरीर से जैसे,
ज्ञान हरा जा चुका है,
मेरा, कुछ नहीं बचा,
मैं रिक्त, ठगा सा,
निर्निमेष देखता,
उन्हें,जैसे देखता,
साधक साधना में,
ईश्वर को,
उनका कम्पन,
मेरे शब्दों का,
कारण है,
मेरे नेत्र की सहसा,
लालिमा, क्रोध नहीं,
उनकी छवि के,
प्रतिबिम्ब से,
प्रतिबिम्बित है,
नासिका को,
सुखद लगती,
जो सुगन्ध,
वह है जिसमें,
जिनका संग संग,
वेष्ठित होना, देता है,
आकर्षण को जन्म,
इस जगत में,
नेत्रों की टकटकी हैं,
जिनमें इस जगत की,
ऐसी है तेरे,
गुलाब सी,
बिम्ब सी रंजित,
मधुर स्मित,
अधरों की लहर।
©अभिषेक पाराशर?????