【नष्ट नहीं होने वाला मैं, क्यों कि मैं, मैं हूँ】
सन्देह की,
मर्यादा,
पर अंकुश,
प्रभावी हो,
अगर, तो,
व्याकुलता का,
भंजन,
हकीकत को,
प्रमाणित कर,
संयोग का अधिकार,
विवेक का अधिकार,
विनोद का अभिप्राय,
संजोकर, निर्मित करता है,
अन्तः दृष्टि की पाठशाला,
जिसमें उपस्थित होते हैं
धर्म अधर्म दोनों,
धर्म उदार है,
परिणाम देता मन्द,
पर सतत,
अधर्म की चोट,
कठोर है,
सुखद है जो,
प्रारम्भ में,
परन्तु यह पाषाण है
जो देता घाव,
मलहम काम आता,
धर्म का,
समूल नष्ट करता,
उस सन्देह का,
जो करता उत्पन्न,
बेढंगी भय,
क्रोध का दैत्य स्वरूप,
समृद्धि पर आघात,
कुन्द करता व्यक्तित्व को,
अशिष्टता की रागिनी को,
उपादेयता का करता ह्रास,
गलाता सौन्दर्य को,
उसी ढंग से,
जैसे, रात्रि हरती,
प्रकाश को,
पर यह अन्धेरा,
अटल नहीं,
प्रकाश फिर होगा,
वह निश्चित करेगा,
महाप्रकाश की उपस्थिति,
जो नष्ट करेगा,
उस सन्देह को,
उसके स्वरूप से,
नष्ट नहीं होने वाला मैं,
क्यों कि मैं, मैं हूँ।।
©अभिषेक पाराशर