【ज्ञान का दीपक,जो स्वयं भी, प्रकाशित है】
चाँद से होती बात,
मिली शीतलता,
जो करती है,
शीतल,
नख से शिख तक,
उस दर्शन को,
जो समाया है,
मानव के रोम रोम में,
वह रोम क्षण भर में,
आनन्द से भर उठा,
उठा इतना कि,
सीमित कर दिया,
उस सीमा को भी,
जो आनन्द को,
भी नकारती है,
उस ज्ञान के दीपक,
को जो स्वयं भी,
प्रकाशित है,
तिमिर छट चुका है,
अभेद है वो,
उस चुनौती को,
जो चुनती है,
मानव को,
परखने के लिए,
प्रकृति से साम्य के लिए,
उद्योग की विलासिता का,
उपशमन करने के लिए,
बाह्य व्यापार के साथ,
स्पर्श जैसे व्यवहार के लिए,
उस गुण की तलाश में,
जो वैभव को फटकारता है,
स्वीकार करता है,
आश्चर्य जगत का,
जिसमें प्रतीत होती है,
छाया ईश्वर की,
प्रतीति ईश्वर की,
यज्ञ की समन्वित,
भावना,
अनुराग की दीवार,
के साथ,
अनुरोध के दण्ड,
का भाजन,
जो उद्भव करता है,
ज्ञान की उत्कृष्ट,
श्रद्धा,
यही है वह,
कारण अज्ञात,
जब चाँद से,
होती बात।
©अभिषेक पाराशर