~~【{आदमी}】~~
कितने रंग छुपाए बैठा है आदमी,कहीं नफरत तो कहीं प्यार निभाये बैठा है आदमी।
खुद की कशमकश में खोया है,कहीं परिवार बनाये तो कहीं मिटाये बैठा है आदमी।
ज़िन्दगी गुजार देता है झूठे गरुरु में,कहीं महान तो कहीं अपमान करवाये बैठा है आदमी।
खोया है स्वार्थी इच्छाओं में,कहीं कमा रहा धन ही धन कहीं रेत का बिस्तर बनाये बैठा है आदमी।
मिलता नही सुकून उम्र भर खुले पिंजरे में,कहीं लाख ख्वाब सजाये कहीं हर उम्मीद जलाये बैठा है आदमी।
उड़ता है बिना पंखों के आसमान में कहीं चाँद तो कहीं ज़मीन पर इतराये बैठा है आदमी।
नही होती मतलबपरस्ती की आग पूरी इसकी,नाजाने कितने ही धर्मों में अधर्म का पाठ पढ़ाये बैठा है आदमी।