✍️✍️प्रेम की राह पर-67✍️✍️
ज़िक्र जब छेड़ दें तो तुम्हारे ज़िक्र की हल्की सी फुहार न हो,उसमें,तो सम्भव ही नहीं है।इसमें कोई दिखावा नहीं है और न कोई छलावा है।किसी की क्या आहट होगी?यदि आहट तुम्हारी है तो उसे सुनकर कौन आएगा इस प्रेमभूमि में?कौन करेगा विषभुजे तीरों का सामना? और यहाँ तो तब तक कोई नहीं आने वाला जब तक,हे ईश्वर, आप नकार न दें और आप स्वीकार न कर लें।यदि इसके बाबजूद भी कोई विपरीत निर्णय लिया गया।तो समझ लेना जैसे अंतरिक्ष में तारा लुप्त होता है वैसे तुम्हें ग़ायब कर दूँगा।याद रखना।सांसारिक रूप से नहीं पारलौकिक रूप से।वैसे मैं तो उस परमात्मा के बल से लिख रहा हूँ।क्या लिख जाता है?क्यों लिख जाता है?नहीं पता।पर किस हेतु लिख जाता है यह पता है।क्या परिणाम के बन्धन इसमें व्याप्त हैं, निश्चित है।कितने सकारात्मक होंगे, इस पर मनुष्य की जाति मौन है।इसमें उसका कोई दोष नहीं है।वह तो सत्य को जी रहा है।जीवन्त किसे समझे,उस अत्याचारी को जिसे किसी को भी जीवनदान न देने की अनुमति मिली है।कोई अपना जीवन आनन्द से गुजारें तो हमें क्या?दुःख से गुजारे तो हमें क्या?पर हे गुड्डू हम आनन्द में हैं।किसी से उधार न लिया है यह मैंने।यह उस उजास का प्रतीक है जो कालिमा में भी चमकार कर दे और करता रहे।इसकी कोई विस्तृत छवि नहीं है।यह किसी एहसास का प्रतीक भी नहीं है।परन्तु अनुभव इसमें कूट कूट कर भरा है।निरन्तर विचारों की घेराबंदी करनी पड़ती है।सावधानी से।नहीं तो कोई निकल कर अकेला ही प्रस्थान कर जाएगा और गलत कुछ हुआ तो द्वितीय पदत्राण का दण्ड निश्चित ही सविकल्प मिलेगा।तब से डिजीटली मिला था और कहीं ऑफलाइन मिला,अब तो जान ही निकल जायेगी और कहीं इतना पड़ा कि मुखरूपी दर्पण रंगीन हो गया तो।यह बुद्धिमान दोपायों का स्वपरिभाषित समाज छद्म व्यंग्य के साथ हँसी की ठिठोली पुनः-पुनः प्रेषित करेगा।जिसे स्वीकार करना होगा आपके ताम्बूल की तरह जिसका विक्रय करेंगी आप अपनी डिग्री लेकर जब पहुँचेंगी अपने गाँव।नाम होगा “द्विवेदी जी पवित्र ताम्बूल केन्द्र”।आ हा।गुलकन्द की महक के साथ इलायची की कली जब ताम्बूल में पिरोयी जाएगी तो निश्चित समझना स्वर्ग के देवता भी आपके हाथ के ताम्बूल सेवन के लिए प्रत्येक क्षण प्रेरित रहेंगे।चूने की छोटी से बिन्दुकी और कत्थे की सजावट ताम्बूल का आंतरिक चेहरा ऐसे चमक जाएगा जैसे आँखों की बरौनियों पर रूपा जी द्वारा लगाया खिजाब।कोई बात नहीं एक तदबीर से स्वर्णभस्म का हल्का लेप ताम्बूल पर लगा होगा।लौंग की कली, संसार के मोह को नष्ट करने वाली होगी।कोई कहेगा गुलकन्द का अस्पर्धीय लेप,रूपा जी दोबारा, लगा दें।आप मुस्कुराकर पुनः बिना धन,एक हाथ से कमाएँ और सौहाथों से दान करें, मन ही मन सोचकर,बड़ी सादगी से चिन्तन कर,झट से ताम्बूल पर लगा ही देंगी।कोई बात नहीं पान को विविध ढंग से सजाकर हाथ घुमाकर विशेष कम्पन्न के साथ,आए हाए, जिसके भी मुँह में सेवित करेंगी,वाक़ई,दामिनी के झटका सा अनुभव होगा, उस सज्जन के सौ रोग दफ़ा हो जायेंगे।योग की सभी विधाएं हस्तामलक हो जाएगी उस मान्यवर को।वह विविध ढंग के प्रचार वह करेगा।बड़े सम्मान से अन्य लोगों तक अपनी वार्ता का निनाद पहुंचाएगा।वह तपस्वी बनकर नित्यप्रति समय पर आपके पान का सेवन करने आएगा।तो इसमें खेद क्या है?कुछ नहीं।यह सब श्रृंखलाबद्ध कर दिया जाएगा पुस्तक के रूप में।यह निश्चित समझना।यह पुस्तक तो तैयार होकर रहेगी।परन्तु उस संवाद का अतिक्रमित स्वतः ही कर दिया।क्यों?बिना बताएँ।छोड़ूँगा नहीं।याद रखना।ब्राह्मण हूँ।कट्टर भी हूँ।शरीर की वासना से प्रेम नहीं मुझे।आज से ही तुम्हें मालूम पड़ेगा कि किसी का कोई तप भी होता है।कोई प्रश्नोत्तर नहीं।पहले ही कह दिया है किसी देवालय में चले जाना प्रथम आवेदन मेरा ही मिलेगा।तुम्हें कोई नहीं पूछेगा वहाँ।तुम अपने पतन का इंतजाम कर लो।बिना विषय के यह सब अघटित घटित कर दिया।वज़ह क्या थी?तुम्हारे अन्दर बैठा जीव रोएगा याद रखना।समय की प्रतीक्षा करो।रुला दूँगा।किसी भी सांसारिक वस्तु का प्रयोग किये बग़ैर।अब यही तो प्रेम की राह पर वंचकपन है।बिना निष्कर्ष के।संसारी प्रेम में इतना गुरूर।पारलौकिक प्रेम तो हमारे हाथ में नहीं रहता है।चलो माना।परन्तु सब बात की, परन्तु मुझ तक कोई बात नहीं पहुँची उसका क्या मेरा दोष है?इसमें कोई पूर्वधारणा नहीं मेरी।स्मरण रखना इसे।अकलंकित शब्द थे मेरे।पर यह निराशा को तुमने जन्म दिया है।फिर वही कृत्य शुरू होंगे अब जो पहले हुए थे।अपना अवसाद में जाना अटल समझना।वह नींव हिला दी जाएगी।अब।मेरा लेख तो चलता रहेगा।इस पुस्तक को जो जिया है उसके साथ ही लिखूँगा इसे और लिखा जाएगा इस विशुद्ध प्रेम को अशुद्ध करने वाले का पतन।कोई नहीं बचाएगा।ध्यान रखना।नमूने मिलने शुरू हो गये क्या????निष्कर्ष निकाल के रहूँगा।
©®अभिषेक पाराशर