✍️हम जिस्म के सूखे एहसासो से बंझर है
रोज कही ना कही
उठती होगी आवाजें
हमें तो शोरशराबे की
आदत सी पड़ गयी है…!
रोज कही ना कही
उठता होगा धुँवा
हम तो अंगारों में
झुलसते ही रहते है…!
तुम इन सर्द ख़ामोशी
में भीतर तक सहमे हुए
बर्फ की तरह जम गये हो
क्या तुम्हे गूँजती आवाजों से
बरसते हुए अंगारे नजर नही आते..?
या फिर तुम जलते
हुए रोम को देखकर
फिडेल बजानेवाले ‘नीरो’
की तरह पीड़ामुक्त हो..?
या फिर जान बूझकर
तुम ‘गांधारी’ बने हुए हो..?
ताकि महसूस तो हो मगर
नजरअंदाज करने की जरुरत ना हो…!
रोज कही ना कही बस यही मंझर है
उठती आवाजो को दबाकर…
दहकते अंगारों को बुझाकर…
हम जिस्म के सूखे एहसासो से बंझर है
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©✍️’अशांत’ शेखर
08/10/2022