.✍️कबीर-मुर्शिद मेरा✍️
✍️कबीर-मुर्शिद मेरा✍️
……………………………………………….//
“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ,
पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का,
पढ़े सो पंडित होय।”
इस युद्धजन्य स्थिति
में कबीर कितने समर्पक है।
काश इस “दोहे” की दुनिया
भी समर्थक होती..!
फिर आदमी प्रेम की
परिभाषा भी समझता ।
और आदमी से इंसान
बनने के लिये पीर संतो का
योगदान भी जान लेता ।।
कबीर, अफ़सोस ये है
के अब तक आदम
“ढाई आखर प्रेम का”
अपने अंदर मुर्शिद ना कर पाया।
…………….………………………………..//
✍️”अशांत”शेखर✍️
14/06/2022