**********☆☆मेरा शहर ☆☆**********
मेरा शहर ! इक्कीसवीं सदी में
श्मशान बन गया है ।
शहर की पाश कालोनियों में रहने वाले
अब इंसान नही ,
चलते – फिरते मुर्दे दिखाई पड़तें हैं ।
वैसे तो खपरैल, बैलगाड़ियां, टूटी – फूटी पगडंडियाँ
अतीत का इतिहास बन गई है,
चाचारों तरफ चिकनी सड़कों पर
फर्राटे भरती हुईं कारों की लम्बी कतारें,
ऊंची चिमनियों से धुएँ उगलते हुए
बड़े – बड़े कल – कारखाने,
और ऊँची अट्टालिकएं,
दीखती जरूर है ,
लेकिन !
वह ” दर्पण ” दिखाई नही देता
जिसमें हम पूरे समाज को देखते थे ।
लोग भागे जा रहे हैं –
एक दूसरे को धकियाते हुए
और केवल
अपने सामने की ओर देखते हुए,
उन्हे चिंता नही है
मेरे साथ भी कोई चल रहा है –
हम सफर बनकर ।